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तत्वार्थचिन्तामाणिः
नहीं प्रतीत हो रहा है। अतः व्यवधान करानेवाला भाग मध्य नहीं है । यदि पूर्व, पश्चिम, आदि भागोंका विरहस्वरूप मध्यवर्ती अन्तराल भागको मध्य कहा जायगा, तब तो सर्व ही मध्य हो जावेंगे। ऐसी दशामें अन्तरालस्वरूप क्षेत्रविरहको छिद्रपना कहां रहा ! इस कारण यहां विरहको ही अन्तर कहना न्याययुक्त है। उन अन्तरोंमें छिद्र और मध्यका विरहकालसे कथंचित् अभेद होनेपर भी जीवतत्त्वकी अधिगतिमें उपयोगी अंग न होनेके कारण यहां प्रकरणमें अधिकार नहीं है। अतः छिद्र और मध्यका वचन नहीं किया गया है और विरहकाल तो उस जीवनतत्त्वके ज्ञान में उपयोगी अंग है । अतः उमास्वामी महाराजद्वारा विरहकालका उपदेश देना यह युक्त है। हां, पुद्गल तत्त्वका निरूपण करनेमें तो छिद्र और मध्यका भी वचन उपयोगी है। अतः राजवार्तिक को बनानेवाले श्री अकलंकदेवका वचन सिद्ध हो जाता है। भावार्थ-पुद्गल तत्त्वकी अधिगति करानेमें छिद्र और मध्यरूप अन्तर भी हम अभीष्ट कर लेते हैं । यह अन्तरका निरूपण कर दिया है । अब भावको दिखलाते हैं।
अनौपशमिकादीनां भावानां प्रतिपत्तये । भावो नामादिसूत्रोक्तोप्युक्तस्तत्त्वानुयुक्तये ॥ ५७ ॥
यद्यपि " नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः " इस सूत्रमें वस्तुकी वर्तमान पर्यायरूप भावका कथन हो चुका है । फिर भी इस सत्संख्या आदि सूत्रमें औपशमिक, क्षायिक आदि भावोंकी प्रतिपत्ति करानेके लिये भावका निरूपण किया है । शिष्योंके विशदरूपसे तत्त्वोंका अनुयोग कराने के लिये परोपकारी महर्षियोंका यह उद्योग आदरणीय है । धन्यास्ते ऋषयो जयन्तु । नमोऽस्तु तेभ्यः ।
नामादिषु भावग्रहणात्पुनर्भावग्रहणमयुक्तमिति न चोद्यं, अत्रौपशमिकादिभावापेक्षत्वात्तद्ग्रहणस्य विनेयाशयवशो वा तत्त्वाधिगमहेतुविकल्पः सर्वोऽयमित्यनुपालंभः।।
नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपकोंमें भावका ग्रहण होजानेसे फिर यहां भावका ग्रहण करना अयुक्त है, इस प्रकारका अभियोग जैनोंके ऊपर नहीं लगेगा। क्योंकि इस सूत्रों जीवके औपशमिक, औदयिक, आदि भावोंकी अपेक्षा रखनेके कारण उस भावका ग्रहण करना सार्थक है अथवा जैसा जैसा विनीत शिष्योंका अभिप्राय है, उसके अधीन हुये सूत्रकार आचार्य महाराजने तत्त्वोंके अधिगम करानेवाले हेतुओंकी उक्त चारों सूत्रोंमें यह सब विकल्पना की है । इस कारण जैनोंके ऊपर निन्दाकारक कोई उलाहना नहीं आता है । अर्थात्-भिन्न भिन्न अभिप्रायवाले शिष्योंको व्युत्पत्ति करानेके लिये तत्त्वार्थाधिगमके न्यारे न्यारे उपाय बताय दिये हैं । लोकमें भी श्रोताके अभिप्राय अनुसार वक्ता द्वारा व्याख्यान किया जाना देखा जाता है। अतः क्षेत्र, अधिकरण, स्थितिकाल, भाव-भाव, आदिको न्यारा न्यारा कहनेमें कोई दोष नहीं आता है।