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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः ६१३ कारण कि द्वितीय, तृतीय, आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले स्वरूप करके पदार्थका एकपना है और उन द्वितीय आदिकी अपेक्षा रखनेवाले स्वरूप करके अर्थकी द्वित्व, त्रित्व आदि संख्यायें हैं, इस कारण विरुद्धता तो दूर ही भगा दी गयी समझ लेनी चाहिये। हां फिर इन एकत्व और द्वित्व, आदिके अपने अपने स्वरूपों का भेद तो है ही, तभी तो उस धर्मी पदार्थको अनन्तधर्मो के साथ तदात्मकपना है । जब वे धर्म अपने स्वरूपमें न्यारे न्यारे होंगे तभी तो अनन्त हो सकेंगे । इस कारण वास्तविक रूपसे इन धर्मोंका अपने अपने रूपमें परस्परभेद व्यवस्थित हो रहा है । कल्पनासे आरोपे गये उस धर्मीका निराकरण कर दिया है। इस कारण वस्तुभूत एक धर्मी में वास्तविक अनेक धर्म अविरुद्ध होते हुये एक समय ठहर जाते हैं। 1 भवचैकत्वादीनामेकत्र सर्वथाप्यसतां विरोधः स्यात्सतां वा । किं चातः । अस्तुतोष न्याय से एकत्व, द्वित्व, आदि धर्मोका एक पदार्थमें विरोध होना मान भी लिया जाय तो आप एकान्तवादी यह बताओ कि सभी प्रकारोंसे असत् हो रहे धर्मोका परस्पर में विरोध होगा ? अथवा सभी प्रकारोंसे सत्भूत धर्मोका विरोध होगा ? इसपर एकान्तवादी कहते हैं कि ऐसा प्रश्न करनेसे तुम जैन भला क्या अपना प्रयोजन सिद्ध करोगे, तुम्ही बताओ ? अब आचार्य कहते हैं कि सर्वथैवासतां नास्ति विरोधः कूर्मरोमवत् । सतामपि यथा दृष्टस्वेष्टतत्त्वविशेषवत् ॥ २५ ॥ कच्छप रोंगटे समान सभी प्रकार असत् पदार्थोंका तो विरोध होता नहीं है और जैसे देखे गये तदनुसार सत् पदार्थोंका भी मिथः विरोध नहीं है । जैसे कि अपने अपने अभीष्ट तवोंके विशेषका विरोध किसीने नहीं माना है 1 न सर्वथाप्यसतां विरोधो नापि यथादृष्टसतां । किं तर्हि, सहैकत्रादृष्टानामिति चेत् कथमिदानीमेकत्वादीनामेकत्र सकृदुपलभ्यमानानां विरोधः सिध्येत् : मूर्तत्वादीनामेव तवतो भेदनयात्तत्सिद्धेः ॥ पूर्वपक्षी कहते हैं कि सभी प्रकारोंसे असत् हो रहे पदार्थोंका विरोध नहीं है । और जिस तिस प्रकार देखे जा चुके सत् भूतपदार्थोंका भी विरोध हम नहीं मानते हैं, तो किनका विरोध है ? इस प्रश्नपर हमारा यह कहना है कि एक अर्थ में साथ नहीं दीखरहे धर्मोका विरोध है । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि अब एकधर्मी में एक ही समय देखी जारहीं एकत्व, द्वित्व, त्रि, आदि संख्याओं का विरोध भला कैसे सिद्ध होगा ? हां, मूर्तत्व अमूर्तत्व या चेतनत्व व अ - आदिका ही वास्तविकरूपसे भेदनयकी अपेक्षा वह विरोध सिद्ध होता है। वे एक स्थलपर नहीं दीखरहे हैं।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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