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________________ ६१२ तत्वार्थ लोकवार्तिके 1 गया है । वे द्वेषीजन जिस ही प्रकारसे यानी केवल अपने डीलसे पदार्थका एकपना मानते हैं उस प्रकार से दोपन, तीनपन, आदि संख्याओंका सद्भाव चाह रहे हैं । किन्तु स्याद्वादियों के यहां तो भिन्न मिन्न निरूपक स्वभावोंसे एकत्व, द्वित्व, आदि संख्याओंकी न्यारी न्यारी वृत्ति मान ली गयी है। अतः विरोध नहीं है । ये खलु पदार्थस्य येन रूपेणैकत्वं तेनैव द्वित्वादि वांछति तेषामेव स्याद्वादविद्विषां विरोधस्य प्रतिपादनात् । “ विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषां." इति वचनात् न स्याद्वादिनामेकत्वादिधर्मकलापस्य परस्परं प्रतिपक्षभूतस्य वृत्तिरेकत्रैकदा विरुध्यते तथा दृष्टस्वात् । ततो नोपालंभः प्रकल्पनीयः । जो वादी नियमसे पदार्थोंका जिस स्वरूपसे एकपना है उस ही स्वरूपसे दोपन, तीनपन, आदि संख्या की वांछा करते हैं, उन्हीं स्याद्वादोंसे विद्वेष करनेवालों के यहां विरोधदोष होना कहा जाता है। श्रीसमन्तभद्राचार्यने देबागममें यह कथन किया है कि स्याद्वादन्यायके साथ विद्वेष करनेवाले वादियोंके यहां विरोध होनेके कारण नित्यत्व अनित्यत्व, पृथक्भाव अपृथक्पना, एकत्व अनेकत्व, आदि उमा एकात्मकपना नहीं बनता है । किन्तु स्याद्वादियोंका सिद्धान्त अनुसार परस्पर में प्रतिपक्षी भी हो रहे एकत्व आदि धर्मोके समूहकी एक पदार्थमें एक समय वृत्ति होना विरुद्ध नहीं है । क्योंकि तिस प्रकार होता हुआ देखा जा रहा है । तिस कारण स्याद्वादियोंके ऊपर विरोध आदि दोषोंका उलाहना देना नहीं कल्पित किया जा सकता है 1 स्वाद्वादिनां कथं न विरुद्धता उभयैकात्म्याविशेषादिति चेत् । यदि कोई यों कहें कि दो प्रतिपक्षी धर्मोका एक आत्मकपना जैसे हमारे यहां नहीं बनता है, वैसे ही विशेषतारहित होनेके कारण स्याद्वादियोंके यहां भी एक अधिकरणमें अनेक धर्मोका एकात्मकपना नहीं बनेगा तो फिर अनेकान्तवादियोंके मत में भी विरुद्धपनेका उलाहना क्यों न दिया जाय ? इस प्रकार कहनेपर तो ग्रन्थकारका यह उत्तर है कि नैकत्वं स्वरूपेण तेन द्वित्वादि कथ्यते । नैवानंतात्मनोऽर्थस्येत्यस्तु केयं विरुद्धता ॥ २४ ॥ हम स्याद्वादियोंने अनन्तधर्मस्वरूप अर्थका जिस ही स्वरूपसे एकपना है उस ही स्वरूप करके उसके द्वित्व, त्रित्व, आदिक धर्म नहीं कहे हैं। इस कारण एक पदार्थमें अन्योंकी अपेक्षा द्वित्व आदि भी ठहर जाओ ! ऐसी दशामें यह विचारी विरुद्धता कहां रही ? अर्थात् नहीं रही । द्वितीयाद्यनपेक्षेण हि रूपेणार्थस्यैकत्वं तदपेक्षेण द्वित्वादिकमिति दूरोत्सारितैव विरुद्धताऽनयोः स्वरूपभेदः पुनरनंतात्मकत्वात्तस्य तस्वतो व्यवतिष्ठते कल्पनारोपितस्य वस्य निराकरणात् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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