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________________ तार्थचिन्तामणिः ५९१ सम्पूर्ण पदार्थ असत्स्वरूप ही हैं, इस प्रकार कहनेवाले शून्यवादीके प्रति श्रीविद्यानंद आचार्य स्पष्ट व्याख्यान करते हैं कि सन्मात्रापह्नवे संवित्सत्त्वाभावान्न साधनम् । स्वेष्टस्य दूषणं वास्ति नानिष्टस्य कथंचन ॥ ३ ॥ पदार्थो की सम्पूर्णरूपसे सत्ताका यदि निराकरण किया जायगा तो संवेदनकी सत्ताका भी अभाव हो जायगा । ऐसी दशामें अपने इष्टतत्त्वका साधन करना और दूसरे प्रतिपक्षिओंके द्वारा माने ये अनिष्टतत्त्वका दूषण करना, किसी भी ढंग से नहीं बन पाता है। भावार्थ ज्ञानसे ही इष्ट तत्वोंका साधन और अनिष्टतत्त्वोंका निवारण होता है । जब शून्यवादीके विचार अनुसार सम्पूर्ण पदार्थोंको सत् नहीं मानोगे तो ज्ञानकी भी सत्ता नहीं मानी जायगी। ऐसी दशामें उक्त कार्य कैसे सम्पन्न हो सकेगा ? तुम शून्यवादी ही विचार करो । संवेदनाधीनं हीष्टस्य साधनमनिष्टस्य च दूषणं ज्ञानात्मकं न च सर्वशून्यतावादिनः संवेदनमस्ति, विप्रतिषेधात् । ततो न तस्य च युक्तं । नापि परार्थे वचनात्मकं तत एवेति न सन्मात्रापवोपायात् । इष्टकी सिद्धि करना और अनिष्ट तत्त्वका दूषण दिखलाना ये सब संवेदनके अधीन होनेवाले कार्य हैं। ज्ञानाद्वैतवादियोंके अथवा स्याद्वादियोंके यहां अपने लिये अधिगमको करानेवाले इष्टसाधन और अनिष्टदूषण ये दोनों ज्ञानस्वरूप हैं । किन्तु सबको शून्यपना कहनेकी टेववाले वादीके यहां तो संवेदन भी तत्त्व नहीं माना गया है । क्योंकि विप्रतिषेध है । अर्थात् ज्ञानको मान लेने पर सब पदायोका शून्यपना नहीं बन पाता है और सबका शून्यपना मान लेनेपर संवेदनकी सत्ता नहीं ठहरती है। यह तुल्यबलवाला विरोध है । तिस कारण उस शून्यवादीको सम्पूर्ण सत्पदार्थीका अपह्नव करना युक्त नहीं है तथा दूसरोंके लिये इष्टका साधन और अनिष्टका दूषण भी जो कि वचनस्वरूप है। नहीं बन पायगा । क्योंकि यहां भी वही युक्ति है अर्थात् तुल्यबल विरोध है । वचन मान लेनेपर सर्वशून्यपना नहीं घटता है और सर्वकी शून्यता माननेपर श्रोताओंके लिये वचनस्वरूप इष्टसाधन और अनिष्टदूषण नहीं बन सकते हैं। इस कारण सम्पूर्ण ही सत्पदार्थोंका अभाव कहना ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा कहनेसे स्वयं शून्यवादीका ही नाश हुआ जाता है। 1 संविन्मात्रं ग्राह्मग्राहकभावादिशून्यत्वाच्छ्रन्यमिति चेत् — ग्रहण करने योग्य और ग्रहण करानेवाले ऐसे ग्राह्यग्राहकभाव, तथा बाध्यबाधकभाव, कार्यकारणभाव, वाच्यवाचकभाव, आदि परिणामोंसे शून्य होने के कारण केवल संवेदनमात्रको इम शून्य कहते हैं । बहिरंग पदार्थ और ज्ञानके आकारोंको सर्वथा नहीं मानते हैं। इस प्रकार वैभाषिक बौद्धोंके कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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