________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
ग्राह्यग्राहकभावादिशून्यं संवित्तिमात्रकम् । न स्वतः सिद्धमारेकाभावापत्तेरशेषतः ॥ ४ ॥ परतो ग्रहणे तस्य ग्राह्यग्राहकतास्थितिः । परोपगमतः साचेत्स्वतः सोपि न सिध्यति ॥ ५ ॥ कुतश्चिदग्राहकात्सिद्धः पराभ्युपगमो यदि । ग्राह्यग्राहकभावःस्यात्तत्त्वतो नान्यथा स्थितिः ॥ ६ ॥ ग्राह्यग्राहकभावोऽतः सिद्धस्वेष्टस्य साधनात् । सर्वथैवान्यथा तस्यानुपपत्तेर्विनिश्चयात् ॥ ७ ॥
५९२
ग्राह्य ग्राहकभाव, बाध्यबाधकभाव, आदिसे सर्वथा रीता केवल संवेदन- ही तत्त्व अपने आपसे तो सिद्ध नहीं होता है । यदि अपने तीव्र सुखदुःख आदिके समान केवल शून्य संवेदनका स्वतः ज्ञान हो जाता, तब तो पूर्णरूपसे संशय होनेके अभावका प्रसंग होगा । किन्तु किसी भी प्राणीको केवल संवेदनका ही ज्ञान तो नहीं होता है, यदि उस शून्य संवेदनका दूसरेसे ग्रहण होना मानोगे, तब तो ग्राह्यग्राहक भावकी सिद्धि हो जाती है। संवेदन प्राय हो गया और पर पदार्थ ग्राहक बन गया । यदि स्वयं प्राह्माप्राहक भावको न मानकर परवादी जैन या नैयायिकों के स्वीकार करनेसे बौद्ध कुछ देर के लिये विचारसे पहिले उस ग्राह्यग्राहकताको मानेंगे तो वह प्राह्मग्राहकताकी दूसरोंकी स्वीकृति भी अपने आपसे सिद्ध नहीं हो पाती है । पुनः यदि किसी अन्य ग्राहक ज्ञानसे परवादियोंके स्वीकार करनेको सिद्ध हुआ, मानोगे तब तो वास्तविक रूपसे ग्राह्यग्राहक भाव सिद्ध होगया समझो । अन्यथा लोकप्रसिद्ध प्राह्यग्राहकपनेकी तुम्हारे यहां स्थिति नहीं हो सकती है । अथवा दूसरे प्रकारोंसे आपके इष्टतत्त्वकी व्यवस्था न बन सकेगी । इस कारण अपने इष्टपदार्थका साधन करनेसे सभी प्रकार ग्राह्यग्राहक भाव सिद्ध हो जाता है । अन्यथा यानीं ग्राह्यग्राहकभावको न मानने पर सभी प्रकारोंसे उस इष्टसंवेदनमात्र तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकनेका विशेषरूपसे निश्चय हो रहा है।
न हि ग्राह्यग्राहक भावादिशून्यस्य संवेदनस्य स्वयमिष्टस्य साधनं स्वाभ्युपगमतः पराभ्युपगमतो वा स्वतः परतो वा परमार्थतः ग्राह्माग्राहकभावाभावे घटते, अतिमसंगात् । संवृत्या घटत एवेति चेत्, तर्हि संवेदनमात्रं परमार्थे सत् संवृतिसिद्धं । ग्राहकवेद्यत्वाद्धेदष्यत्रधारवत् ।