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तत्वार्थोक वार्तिक
जिससे सर्वथा शून्यवादीका तथा जीवको न माननेवाले चार्वाक और जडको न माननेवाले ब्रह्मवादीका तिरस्कार हो जाता है।
नन्वेकत्वादस्तित्वस्य न सामान्यविशेषसंभवो येन सामान्यतो नास्तित्वैकांतस्य विशेषतो जीवादिनास्तित्वस्य व्यवच्छेदाय सत्प्ररूपणं प्रागेव संख्यादिभिः क्रियते । न का न सत्ता सर्वत्र सर्वदा तस्या विच्छेदाभावात् । सत्ताशून्यस्य कस्यचिद्देशस्य वानुपपत्तेः, सत्प्रत्ययस्य सर्वत्र सर्वदा सद्भावात् । सत्प्रत्ययस्यैकरूपत्वेपि सत्तानेकत्वं च न किंचिदेकं स्यादिति कचित् सोऽसमीक्षिताभिधायी । सत्तायास्तद्वद्वाह्मार्थेभ्य: सर्वथा भिन्नायाः प्रतीत्यभावात् तेभ्यः कथंचिद्भिन्नायास्तु प्रतीतौ तद्वत्सामान्यविशेषवच्त्वसिद्धेर्नोक्तोपालंभः ।
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यहां वैशेषिककी शंका है कि सत्तारूप अस्तित्वका एकपन होनेके कारण उसके सामान्य और विशेषका सम्भव नहीं है । जिससे कि सामान्यरूपसे सम्पूर्ण पदार्थोंके नास्तिपनके एकान्तका और विशेषरूपसे जीव आदिकोंके नास्तिपनका व्यवच्छेद करनेके लिये संख्या, क्षेत्र आदिकोंसे प्रथम ही सत्काप्ररूपण किया जाय, अर्थात् सत्ता नित्यव्यापक एक है । जब उसमें सामान्य और विशेष विकल्प ही नहीं है तो फिर सामान्य और विशेषरूपसे नास्तित्वके निवारणार्थ पहले सत् प्ररूपणा क्यों की जा रही है ? सत्ता एक नहीं है, यह नहीं समझना । क्योंकि सब स्थालोंपर सभी कालमें उस सत्ताका विच्छेद ( व्यवधान) नहीं हो रहा है। भावार्थ – सब देश और सब कालोंमें आकाशके समान सत्ता व्याप रही है । कोई भी देश सत्तासे शून्य होकर नहीं सिद्ध हो रहा है। सम्पूर्ण पदार्थों में सब स्थलों पर सदा ही " सत् " ऐसे ज्ञानोंका सद्भाव है । सत्प्रत्ययके अन्तररहित एकरूप होते हुए भी यदि सत्ताको अनेक माना जायगा, तब तो जगत् में कोई भी पदार्थ एक न सिद्ध हो सकेगा । आकाश आदि सभी व्यक्तियां अनेक बन बैठेंगी, इस प्रकार कोई वैशेषिक कह रहा है, सो वह विना विचारे हुये पदार्थका कथन करनेवाला है। क्योंकि उस सत्तावाले बाह्य घट, पट, आदि अर्थोंसे सभी प्रकार भिन्न होती हुई सत्ता की प्रतीति नहीं हो रही है। हां, तिन सत्तावान् पदार्थोंसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न ऐसी सत्ताकी प्रतीति होना माना जायगा, तब तो उन्हीं अर्थोके समान सत्ताके भी सामान्य विशेषसहितपना सिद्ध हो जाता है। उससे अभिन्न पदार्थ में उसके धर्म अवश्य आते हैं। इस कारण वैशेषिकोंका कहा हुआ उलाहना स्याद्वादियोंके ऊपर लागू नहीं होता है । यानी जब पृथिवी, आदिक पदार्थोंमें सामान्य और विशेषभाव है तो उनसे अभिन्न सत्ता में भी सामान्य और विशेष अवश्य मानने पडेंगे । पदार्थोंसे सर्वथा भिन्न हो रही सत्ता जातिकी सिद्धि नहीं हो सकती है । " न याति न च तत्रास्ते न पश्चादस्ति नाशवत् । जहाति पूर्व नाधारमहो व्यसनसन्ततिः " इत्यादि अनेक दूषण प्राप्त हो जावेंगे ।
सर्वमसदेवेति वदतं प्रत्याह
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