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________________ ५६६ तत्वार्यलोकवार्तिके नोंमें यदि अविद्याका विलास ( खेल ) इष्ट किया जायगा तो कारणोंके झूठे होनेपर वास्तविक मोक्ष कहां हुयी ! यदि मोक्षके साधनोंको ज्ञानस्वरूप मानोगे, तब तो मोक्ष भी विशिष्ट ज्ञानस्वरूप ही होगी। इसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु वह सम्वित्स्वरूप मोक्ष यदि साधनोंसे रहित है तब तो निस हो जावेगी। क्योंकि “ सदकारणवन्नित्यम् " जो सत् होकर अपने बनानेवाले कारणोंसे रहित है, वह नित्य होता है। यदि अन्यथा यानी दूसरे प्रकारसे मोक्षको कारणसहित माना जायगा, तब तो बौद्धोंके यहां वास्तविकरूपसे साधन सिद्ध हो जाता है। यदि उस संवित्को अद्वैतवादियोंकी ओरसे नित्य और सर्वव्यापक आत्मारूप इष्ट किया जायगा तो उस संवितस्वरूप मुक्तिकी सम्विति होना असम्भव है। इस कारण बौद्धोंके निरंश और क्षणक्षयी ज्ञानतत्त्वके समान ब्रह्मवादियोंकी नित्य, व्यापक, सम्विति रूप, मोक्षकी भी व्यवस्था भला कहां हुयी ! अतः मुख्यरूपसे साध्यसाधनभाव माननेपर ही मोक्ष और उसके अष्टांग साधन या श्रवण, मनन, आदिका अभ्यास होना बन सकता है। अन्यथा नहीं। न हि क्षणिकानंशसम्वेदनं स्वतः प्रतिभासते, सर्वस्य भ्रान्त्यभावानुषंगात् । तद्नित्यं सर्वगतं ब्रह्मेति न तत्सम्वेदनमेव मुक्तिः पारमार्थिकी युक्ता, ततः सकलकर्मविप्रमोक्षो मुक्तिरुररीकर्तव्या । सा बन्धपूर्विकेति तात्त्विको बन्धोऽभ्युपगन्तव्यः तयोः ससाधनत्वात् । अन्यथा कादाचित्कत्वायोगात्साधनं तात्त्विकमभ्युपगन्तव्यं न पुनरविद्याविलासमात्रमिति सूक्तं साधनमधिगम्यम् ।। बौद्धोंका माना गया क्षणिक और अंश रहित सम्वेदन स्वयं अपने आप तो नहीं प्रतिभासता है। यदि सम्वेदन स्वयं प्रतिभासता होता तो सब जीवोंको उसमें भ्रान्तिके न होनेका प्रसंग हो. जाता । भावार्थ-जो स्वयं प्रतिभास जाता है, उसमें बालगोपाल भी भ्रान्ति उत्पन्न नहीं करते हैं । अपने तीव्र दुःखवेदनके समान विना रोकटोकके मानलेते हैं । उसी सम्वेदनके समान अद्वैतवादियोंका नित्य और सर्वव्यापक परब्रह्म भी स्वयं नहीं प्रतिभासता है। इस कारण बौद्धों या अद्वैतवादिओंकी ओरसे उस सम्वित्का संवेदन होना ही वास्तविकरूपसे मुक्ति है । यह कहना भी अयुक्त है । तिस कारण क्षणिकवादी और नित्यवादी दोनोंको सम्पूर्ण कर्मीका प्रागभावके साथ प्रकृष्टतासे मोक्षण हो जाना ही मुक्ति स्वीकार कर लेनी चाहिये और वह मोक्ष तो बन्धपूर्वक ही होगी। क्योंकि पहिले बन्धा हुआ ही पीछे मुक्त होता है। इस कारण बन्धतत्त्व भी वास्तविक स्वीकार करना चाहिये । वे बन्ध और मोक्ष दोनों अपने उत्पादक कारणोंसे सहित है। अन्यथा यानी उनको यदि कारणसहित न माना जायगा तो कभी कभी होनेपनका अयोग हो जायगा अर्थात् जिस पदार्थका कोई कारण नहीं है, वह या तो नित्य है अथवा असत् है । किन्तु बन्ध और मोक्ष सत् होते हुए व्यक्तिरूपसे कभी कभी किसीके होते हैं । अतः वे कारणसहित हैं। यहांतक साध दिये अधिगमक साधनको वास्तविक स्वीकार कर लेना चाहिये। फिर वह केवल
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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