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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः तदेवं व्यवहारनयसमाश्रयणे कार्यकारणभावो द्विष्ठः सम्बन्धः संयोगसमवायादिवृत्प्रतीतिसिद्धत्वात् पारमार्थिक एव न पुनः कल्पनारोपितः सर्वथाप्यनवद्यत्वात् । संग्रहर्जुसूत्रनयाश्रयणे तु न कस्यचित्कश्चित्सम्बन्धोन्यत्र कल्पनामात्रात् इति सर्वमविरुद्धं । न चात्तसाध्यसाधनभावस्य व्यवहारनयादाश्रयणे कथंचिदसम्भव इति सूक्तं साधनत्वमघिगम्यमर्थानां तदपलपंतीऽसदुक्तय एव इत्याह । ५६५ तिस कारण इस प्रकार व्यवहारनयका वस्तुस्थितिके अनुसार भले ढंगसे आश्रय लेनेपर संयोग, समवाय, विशेषण विशेष्य, गुरुशिष्यत्व आदि सम्बन्धोंके समान दोमें ठहरनेवाला कार्यकारण भाव सम्बन्ध भी प्रतीतियोंसे सिद्ध होनेके कारण वस्तुभूत ही है, किन्तु फिर कल्पनाओंसे गढ लिया गया नहीं है । क्योंकि सभी प्रकारोंसे निर्दोष सिद्ध हो रहा है । हां ! त्रिलोक त्रिकालवर्त्ती सम्पूर्ण पदार्थोंके सम्पूर्णभेदोंको एक सत्पनेसे या द्रव्यपनेसे एकपना रूपमें घेरनेवाली संग्रहनय और सूक्ष्म या स्थूल एक ही पर्यायको विषय करनेवाली ऋजुसूत्र नयका सहारा लेनेपर तो कोई भी किसीका सम्बन्ध नहीं है। कोरी कल्पनायें चाहें जैसी कर लो, जो कि हेय हैं । और केवल कल्पना के अतिरिक्त (सिवाय) कोई भी किसीका सम्बन्धी नहीं है । सब अपने अपने स्वभावोंमें लीन हैं । यही निश्चय नय कहता है । इस प्रकार अनेकान्तमें सम्बन्ध और असम्बन्ध सभी अविरुद्ध होकर बन जाते हैं। यहां साधनके प्रकरणमें व्यवहारनय से साध्यसाधनभावका आश्रय करनेपर साध्यपन और साधनपनका किसी अपेक्षासे असम्भव नहीं है । इस कारण जीव, सम्यग्दर्शन, आदि पदार्थोंका किसी नियतसम्बन्धी कारणमें साधनपना जानने योग्य है । श्री उमास्वामी महाराजने बहुत अच्छा कहा था । उसको जानबूझकर छिपानेवाले बौद्ध समीचीन भाषण करनेवाले ही नहीं हैं। इसी बात को आगेकी कारिकामें ग्रन्थकार और भी स्पष्टरूपतासे कहते हैं । मोक्षादिसाधनाभ्यासाभावासक्तेस्तदर्थिनां । तत्रा विद्याविलासेष्टौ क मुक्ति: पारमार्थिकी ॥ १४ ॥ संविच्चेत्सम्विदेवेत्यदोषः सा यद्यसाधना नित्या स्यादन्यथा सिद्धं साधनं परमार्थतः ॥ १५ ॥ नित्य सर्वगतात्मेष्टौ तस्याः संवित्त्यसम्भवात् । क्व व्यवस्थापनानंशक्षणिकज्ञानतत्त्ववत् ॥ १६ ॥ व्यवहार नयसे भी साध्यसाधन भावका अपलाप ( प्रतीत कर चुकनेपर भी न मानना ) यदि करोगे तो बौद्धोंके यहां उस मोक्षके अभिलाषी जीवोंको मोक्ष, ज्ञानार्जन, धनोपार्जन आदिके साधनोंका अभ्यास करनेके अभावका प्रसंग होगा । उन दीक्षा, तत्त्वज्ञान, क्रय विक्रय आदि साध
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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