________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
जाता है, वह उसका सहकारी कारण है और शेष दूसरा कार्य है, इस प्रकार कालिकसम्बंध सबको प्रतीत हो रहा है । अतः सहकारी कारणोंके साथ कार्यकी कालप्रत्यासत्ति बन गयी ।
५६४
न चेदं सहकारित्वं कचिद्भावप्रत्यासत्तिः क्षेत्रप्रत्यासत्तिर्वा नियमाभावात् । निकटदेशस्यापि चक्षुषो रूपज्ञानोत्पत्तौ सहकारित्वदर्शनात् । संदंशकादेश्वासुवर्णस्वभावस्य सौवर्णकटकोत्पत्तौ । यदि पुनर्यावत्क्षेत्रं यद्यद्यस्योत्पत्तौ सहकारिदृष्टं यथाभावं च तत्तावत्क्षेत्रं तथाभावमेव सर्वत्रेति नियता क्षेत्रभावप्रत्यासत्तिः सहकारित्वं कार्ये निगद्यते तदा न दोषो विरोधाभावात् ।
यह सहकारीकारणपना कहीं भावप्रत्यासत्ति अथवा क्षेत्रप्रत्यासत्तिरूप होजाय सो नहीं समझना। क्योंकि नियम नहीं है । निकटदेशवाले चक्षुको भी रूपज्ञानकी उत्पत्तिमें सहकारीपना देखा जाता है तथा सोनेके स्वभावरूप नहीं किन्तु लोहेके बने हुये संडासी, हथोडा, निहाई, आदिको सोने के कडेकी उत्पत्ति सहकारीपना देखा जाता है । भावार्थ – यहां कार्य और कारणका एक क्षेत्रपना नहीं है । शरीर के एक देशमें चक्षु है और संपूर्ण आत्मामें रूपज्ञान है, ऐसे ही संडासी और खडुआका भी सूक्ष्मरूपसे विचारनेपर एकक्षेत्र नहीं बनता है, तथा भावसम्बन्ध भी नहीं है । पुगलका परिणाम चक्षु है और चेतनका परिणाम रूपज्ञान है एवं सोनेका कडा है और संडासी आदि लोहे के भाव हैं । अतः इनमें भाविकसम्बन्ध या क्षैत्रिक सम्बन्ध न होकर कालिकसम्बन्ध ही मानना चाहिये । हां, फिर यदि इतना व्यापक विचार होय कि जितने लम्बे चौडे क्षेत्रमें और जिस प्रकारके स्वभावका अतिक्रमण न कर जो कारण जिस कार्यकी उत्पत्ति में सहकारी कारण होता हुआ देखा गया है वह कारण उतने लम्बे चौडे और उस प्रकारके परिणामोंके अनुसार ही सब स्थलों पर कार्यकारी है । इस कारण क्षेत्रप्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्ति भी नियत होरही हैं। वे कार्यमें सहकारीपनकी नियोजक कहीं जातीं हैं, तब तो हम भी कोई दोष नहीं मानते हैं । जैनसिद्धान्तके अनुसार इस व्यवस्था में कोई विरोध नहीं है। भावार्थ – उन्हीं आकाशके प्रदेशोंमें अन्यून अतिरिक् रूपसे कार्य और कारणों का होना भले ही कचित् उपादान उपादेयों में मिल जाय, किन्तु सहकारी और कार्यों में मिलना दुःसाध्य है । तैसे ही उस एक ही भावपरिणामसे अविभागप्रतिच्छेदोंकी ठीक संख्या में सम्बन्धियोंका मिलना भी कष्टसाध्य है । अतः दो हाथ भूमिमें बैठे हुये कुलाल और घटका उतना लंबा चौडा एकक्षेत्र कहा जाता है । पचास हाथ लम्बे एक अवयवी कपडे के साथ कोरियाका या सूर्यके साथ कमलका इतना बड़ा एक क्षेत्र कहा जायगा । ऐसे ही यथासम्भव भावोंमें भी संख्या, परिणाम, जाति, आदिकी समानताको लगाकर भाव सम्बन्ध करलेना चाहिये । पदार्थोंके परिणाम 1 और चित्रक्षाके अनुसार थोडीसी न्यूनता, अधिकता, सहन करनी पडती है । अतः योग्यताको देखकर कार्य और कारणों में क्षेत्र प्रत्यासत्ति और भावप्रत्यासत्ति भी कहीं कहीं लगालेना ।