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तत्त्वार्थचिन्तामाणः .
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किसीका प्रश्न है कि आप जैन यह बताओ कि श्रीसमन्तभद्राचार्यने आप्तमीमांसामें कहा है कि प्रतिषेध करने योग्य पदार्थके विना संज्ञावालेका कहीं भी निषेध नहीं होता है । यह आचार्यका मन्तव्य आप जैनोंके कथनसे क्यों नहीं विरुद्ध पडेगा ? यानी आपको अपने आचार्यके वचनसे . विरोध आवेगा। तुमने तो प्रतिषेध करने योग्य तुच्छ अभावके विना भी उसका निषेध सिद्ध कर दिया है। अन्यथा यानी निषेध्यके मान लेनेपर ही उसका निषेध किया जायगा, तब तो वाचक संशावाले उस तुच्छ अभावको शब्दके वाच्य अर्थपनका प्रसंग आता है । आचार्य कहते हैं कि यह कटाक्ष तो नहीं हो सकता है, क्योंकि गुरूणां गुरुः श्रीसमन्तभद्राचार्यकी कारिकाका इस प्रकार व्याख्यान है कि संज्ञी अर्थात् समीचीन ज्ञानवाले निषेध्यके विना कहीं भी अन्तरंग अथवा बहिरंग पदार्थका निषेध नहीं होता है । ऐसा व्याख्यान करनेसे उन आचार्योंके मन्तव्यसे हमारे कथनका कोई विरोध नहीं आता है । भावार्थ-सर्वथा एकान्तोंके समान तुच्छ अभाव सम्यग्ज्ञानका विषय ही नहीं है । अतः निषेध्यके विना भी उसका निषेध किया जा सकता है । संज्ञीका अर्थ वाचक संज्ञावाला नहीं किन्तु सम्यग्ज्ञानकी विषयतावाला है ।
सकलप्रमाणाविषयस्य तुच्छाभावस्य प्रतिषेधः स्वयमनुभूतसकलप्रमाणाविषयत्वेन तदनुवदनमेवेति स्यात्प्रतिषेध्याते प्रतिषेधः स्यान्नेत्यनेकान्तवादिनामविरोधः प्रमाणवृत्तानुवादपरत्वात्तेषाम् । न हि यथा जीवादिवस्तु प्रतिनियतदेशादितया विद्यमानमेव देशान्तरादितया नास्तीति प्रमाणमुपदर्शयति तथा तुच्छाभावं तस्य भावरूपत्वप्रसंगात् । सर्वत्र सर्वदा सर्वथा वस्तुरूपमेवाभावं तदुपदर्शयति तथा तुच्छाभावाभावमुपदर्शयति इति तद्वचने दोषाभावः।
____तुच्छ अभाव जब सम्पूर्ण सम्यग्ज्ञानों द्वारा विषय नहीं किया जा रहा है तो उसका निषेध करना स्वयं अनुभूत हो रहे सम्पूर्ण प्रमाणोंके अविषयपनेसे उसका केवल अनुवाद करना मात्र है । भावार्थ-जैसे कि यह मनुष्य घोडा नहीं है, यहां मनुष्यमें घोडेपनकी कल्पना कर उसका अनुवाद करते हुए निषेध कर देते हैं, तैसे ही किसी भी ज्ञानके विषयभूत नहीं ऐसे तुच्छ अभावका अनुवाद कर निषेध कर दिया जाता है । इस कारण कथञ्चित् प्रतिषेध्यके विना भी निषेध हो जाता है और कथञ्चित् प्रतिषेध्यके विना प्रतिषेध नहीं होता है। यानी वन्ध्यापुत्र आदि समसित पदके अर्थ या तुच्छ अभाव और सर्वथा एकान्तोंका प्रतिषेध्यके बिना अभाव साध दिया जाता है तथा अखण्ड पद या सद्भूत अर्थ और सम्यग्ज्ञानवाले अर्थका निषेध तो प्रतिषेध्यके विना नहीं हो पाता है । इस प्रकार अनेकान्त वादियोंके यहां कोई विरोध नहीं आता है, वे तो प्रमाणके द्वारा आचरे गये वृत्तान्तका अनुवाद करनेमें प्रवीण हैं । देखो ! प्रमाण जैसे नियत देश प्रतिनियत काल और नियमित स्वभावों करके विद्यमान हो रहे ही जीव आदि वस्तुओंको दूसरे देश अन्य काल और न्यारे परचतुष्टयादि स्वभावों करके नहीं हैं, यों जिस प्रकार दिखला देता है, तिस प्रकार तुच्छ