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तत्वार्थ लोकवार्तिके
रखता है । अर्थात् निषेध करने योग्य पदार्थके विना निषेध करना नहीं बनता है । " न अन्तरे सम्पाद्यमान इति नान्तरीयकः " । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है । जिसका भाव विद्यमान है, भला उसका निषेध किस प्रकार हो सकता है ? किसी वास्तविक कारणसे तुच्छ अभावका अभाव भी जान लिया जाय और तुच्छ अभावकी सत्ता भी जानली जाय, इस प्रकार भला कौन नीरोग मनुष्य कह सकेगा ? यानी उन्मत्त या रोगी ( बीमार ) मनुष्य ही ऐसी पूर्वापरविरुद्ध बातों को कह सकता है । अतः तुच्छ अभावका भाव कहना कैसे भी आवश्यक नहीं है ।
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ननु वस्तुरूपस्याभावस्य विधानात्तुच्छा भावस्याभावगतिस्तद्गतेस्तस्य गतिस्ततो न व्याघातो नाम, यत एव हि तस्याभावगतिस्तत एव भावस्यापि गतौ व्याघातो नान्यथेति चेन्न, सामस्त्येन तस्याभावगतौ पुनर्भावगतेर्व्याहतेरवस्थानात् । प्रतिनियतदेशादितया तु कस्यचिदभावगत अपि न भावगतिर्विहन्यत इति युक्तम् ।
बौद्ध अपने मतका अवधारण कर कहते हैं कि वस्तुस्वरूप अभाव के विधान करनेसे ही तुच्छ अभाव के अभावकी ज्ञप्ति हो जाती है । यह तो आपने भी माना है किन्तु उस तुच्छ अभावकी अभाव गति से उस तुच्छाभावकी ज्ञप्ति हो जायगी । तिस कारण कोई व्याघात दोषकी सम्भावना नहीं है। हां, जिस ही स्वरूपसे उस तुच्छ अभावके अभावकी ज्ञप्ति होती और उस ही स्वरूपसे तुच्छाभाव के भावकी भी ज्ञप्ति मानी जाती तब तो व्याघातदोष हो सकता था । अन्य प्रकार से मानने पर तो व्याघात नहीं होता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि सम्पूर्ण रूपसे जब तुच्छ अभाव के अभावका ज्ञान कर लिया है, तो फिर तुच्छ अभावके भावकी ज्ञप्ति करनेसे व्याघातदोष होना तदवस्थ रहता है । हां ! नियत कर दिये गये प्रत्येक देश, काल, अवस्था में ठहरने पनसे तो किसीके अभावकी ज्ञप्ति हो जानेपर भी पुनः अन्य देश, अन्य काल, और अन्य अवस्थाओं में उसके भावका ज्ञान कर लेने में व्याघात नहीं आता है, यह युक्त 1 भावार्थ — विवक्षित घटका किसी समय अन्य स्थानोंमें अभाव जाननेपर भी कुलालके घर में उसका भाव भी जान लिया जाता है । क्योंकि घटका संपूर्ण देश, काल, और अवस्थाओं की अपेक्षासे अभाव. नहीं हो रहा है । कहीं कभी किसी अवस्थामें घट है । अन्यत्र अन्यदा अन्य अवस्थामें नहीं है । यहां व्याघातकी सम्भावना नहीं, किन्तु तुच्छ अभावोंका तो सर्वदा सर्वत्र सभी प्रकारोंसे अभाव हो रहा है । अतः उसका भाव जाननेमें व्याघातदोष अवश्य लागू होगा सो समझ रखना ।
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कथमिदानीं “संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याद्यते कचित् " इति मतं न विरुध्यते १ तुच्छाभावस्य प्रतिषेध्यस्याभावेऽपि प्रतिषेधसिद्धेरन्यथा तस्य शब्दार्थतापत्तेरिति चेन्न, संज्ञिनः सम्यग्ज्ञानवतः प्रतिषेध्यादृते न कचिदन्तर्बहिर्वा प्रतिषेध इति व्याख्याना - तदविरोधात् ।