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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
गया। यदि यहां कोई यों कहे कि जब अवधि और मनःपर्ययसे प्रत्यक्ष कर उस पदार्थ का श्रुतज्ञान द्वारा विचार हो जाता है तो मतिपूर्वकपनेके समान अवधि मनःपर्ययपूर्वक भी श्रुतज्ञानके होनेका प्रसंग हो जायगा । ऐसी दशामें " श्रुतं मतिपूर्व " इस सूत्रसे विरोध आता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि सो इस प्रकारका प्रसंग हम जैनोंके ऊपर नहीं आ सकता है। क्योंकि हम उस श्रुतज्ञानका अव्यवहित पूर्ववर्ती कारण मानस मतिज्ञानको मानते हैं । अतः अव्यवहित पूर्ववर्ती कारणकी अपेक्षासे श्रुतज्ञानका कारण मतिज्ञान ही है । हां ! परम्परासे तो उन अवधि और मनःपर्ययको कारण मानकर श्रुतज्ञानकी प्रवृत्ति होना अनिष्ट नहीं है। ज्ञानस्वरूप
और शद्वस्वरूप दो प्रकारका श्रुत होता है । ज्ञानरूप श्रुतका अव्यहितकारण मानस मतिज्ञान है और व्यवहितकारण चाक्षुषप्रत्यक्ष, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान आदि हैं। किन्तु शब्दस्वरूप श्रुतके तो अव्यवहित रूपसे भी साक्षात् कारण अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान हो जाते हैं । कोई विरोध नहीं है। जैसे श्री अरहन्त भगवान् केवलज्ञानद्वारा यावत् पदार्थोका सकल प्रत्यक्ष करके शद्ब रूप द्वादशांग श्रुतका विधान या भाषण करते हैं, अतः द्वादशांगश्रुत केवलज्ञानपूर्वक है, तैसे ही अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञानसे प्रत्यक्ष कर प्रश्नकर्ताके सन्मुख शद्वस्वरूप श्रुतका निरूपण कर दिया जाता है । यहां यों समझ लेना चाहिये कि तेरहवें गुणस्थानमें भगवान्के एक केवलज्ञान ही है । वे उससे चराचर जगत्का हस्तामलक समान प्रत्यक्ष कर रहे हैं । तदनुसार द्वादशांगवाणीद्वारा भव्य जीवोंको उपदेश देते हैं। उस शब्दमय द्वादशांगका कारण केवलज्ञान ही है। अन्यथा यानी भगवान्की द्वादशांगवाणीका और भगवान्के केवलज्ञानका यदि कार्यकारणभाव सम्बन्ध न होता तो द्वादशांग वाणीद्वारा यथार्थ वस्तुका प्रतिपादन होना नहीं बन सकता था। अतः शद्वात्मक श्रुतके अव्यवहित कारण पांचों ज्ञान हो सकते हैं। हां ! ज्ञानात्मक श्रुतज्ञानका कारण मनइन्द्रियजन्य मतिज्ञान है । तभी तो अरहन्तदेवके ज्ञानात्मक श्रुत नहीं माना गया है । तिस कारण सिद्ध हुआ कि मुख्य रूपसे श्रुतज्ञानके ही भेद निर्देश आदिक हैं, यह समझ लेना चाहिये। उपचार करनेसे क्या ? अर्थात् कुछ लाभ नहीं है, यानी दूरवर्ती परम्परा कारणोंसे कोई प्रयोजन नहीं सधता है । अतः वे निर्देश आदिक मतिज्ञानके भेद नहीं हैं।
तत एव श्रुतैकदेशलक्षणनयविशेषाश्च ते व्यवतिष्ठन्ते । येषां तु श्रुतं प्रमाणमेव तेषां तद्वचनमसाधनांगतयानिग्रहस्थानमासज्यत इति कचित् कथञ्चित् प्रश्नपतिवचनव्यवहारो न स्यात् । स्वपरार्थानुपानात्मकोऽसौ इति चेत्र, तस्य सर्वत्राप्रवृत्तेरत्यन्तपरोक्षेष्वर्येषु तदभावप्रसंगात् । न च श्रुतादन्यदेव स्वार्थानुमानं मतिपूर्वकं परार्थानुपानं चेति, त - दत्वमिष्टमेव निर्देशादीनाम् । प्रामाण्यं पुनः श्रुतस्याग्रे समर्थयिष्यत इति नेह प्रतन्यते ।
तिस ही कारणसे श्रुतज्ञानके एकदेशस्वरूप नयोंके विशेष भी निर्देश आदिक व्यवस्थित हो रहे हैं । अर्थात् निर्देश आदिकोंको श्रुतज्ञानरूप माननेपर ही वे नयस्वरूप भी हो सकते हैं।