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________________ तत्वार्यकोकवार्तिके %ecommmmmmmmmmmmmmm या जडस्वरूप उन निर्देश आदिकों करके अधिगम होना इष्ट नहीं है, जिससे कि व्याघात होजाय। अर्थात् मिध्याज्ञानोंसे जो होगा, वह समीचीन अधिगम नहीं कहा जायगा और जो समर्माचीन अधिगम है, वह मिथ्याज्ञानोंसे हुआ नहीं कहा जायगा । इस प्रकारका व्याघातदोष होना प्रमाणनयस्वरूप निर्देश आदिकोंसे अधिगम मान लेनेपर टल जाता है। कस्य पुनः प्रमाणस्यैते विशेषाः श्रुतस्यास्पष्टसर्वार्थविषयता प्रतीतिरिति केचित् । पतिश्रुतयोरित्यपरे । तेत्र प्रष्टव्याः कुतो मतेर्भेदास्ते इति ? मतिपूर्वकत्वादुपचारादिति चेन, अवधिमनःपर्ययविशेषत्वानुषंगात् । यथैव हि मत्यार्थ परिच्छिद्य श्रुतज्ञानेन परामृशनिदेशादिभिः प्ररूपयति तथाऽवधिमनापर्ययेण वा। न चैवं, श्रुतज्ञानस्य तत्पूर्वकत्वप्रसंगः साक्षात्तस्यानिन्द्रियमतिपूर्वकत्वात् परम्परया तु तत्पूर्वकत्वं नानिष्टम् । शद्वात्मनस्तु श्रुतस्य साक्षादपि नावधिमनःपर्ययपूर्वकत्वं विरुध्यते केवलपूर्वकत्ववत् । ततो मुख्यतः श्रुतस्यैव भेदा निर्देशादयः प्रतिपत्तव्याः किमुपचारेण प्रयोजनाभावात् । ___ आप जैनोंने कहा है कि ये ज्ञानस्वरूप निर्देश आदिक तो कोई विशेष प्रमाण हैं सो बतलाइये कि फिर कौनसे प्रमाणज्ञानके भेद प्रभेद हैं ! । इसपर कोई आचार्य ऐसा उत्तर देते हैं कि निर्देश आदिकोंके द्वारा संपूर्ण अर्थोकी अविशदरूपसे विषय करनेपनसे प्रतीति हो रही है इस कारण श्रुतज्ञानके ये विशेष हैं । अस्पष्टरूपसे संपूर्ण अर्थोको विषय करना श्रुतज्ञानका कार्य है यह मत अच्छा दीखता है । कोई दूसरे विद्वान् वे निर्देशादिक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंके विकल्प हैं इस प्रकार कह रहे हैं । हमें यहांपर उनको यह पूछना चाहिये कि वे निर्देशादिक श्रुतज्ञानके भेद हैं यह तो ठीक है। किन्तु वे मतिज्ञानके भेद आपने कैसे कहे सो बताओ ? यदि इसपर वे विद्वान् यों कहैं कि श्रुतज्ञानरूप निर्देशादिक तो मतिज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न होते हैं। अतः कार्य (श्रुत ) में कारण ( मतिज्ञानपन ) का उपचार करनेसे वे मतिज्ञानस्वरूप कह दिये जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि यों तो उन निर्देशादिकोंके अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके विशेषपनका प्रसंग होगा । जिस ही प्रकार मतिज्ञानद्वारा अर्थको जानकर श्रुतज्ञानसे विचार करता हुआ निर्देशादिकों करके शिष्योंके लिये अर्थका निरूपण करता है तिसी प्रकार अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानसे अर्थका प्रत्यक्ष कर श्रुतज्ञानसे विचारता हुआ वक्ता निर्देश आदिकों करके पदार्थका कथन करता है । भावार्थ-अर्थसे अर्थान्तरके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं । चक्षुसे वस्त्रका प्रत्यक्ष कर जैसे यह वस्त्र मलमल है, लट्ठा है, गजी है, देवदत्तका वस्त्र है, जिनदत्तका वस्त्र है, करघेसे बना है, हाथसे बना है इत्यादि निरूपण किया जाता है। उसी प्रकार अवधिज्ञानसे या मनःपर्ययसे देशान्तर कालान्तरवर्ती पदार्थका विशद प्रत्यक्ष कर उसमें श्रुतज्ञान द्वारा अनेक विचार उठाकर निर्देश आदिकोंसे निरूपण कर दिया जाता है । अतः वे निर्देशादिक अवधि और मनःपर्ययके भी विशेष क्यों न समझे जांय ? उपचार करनेका उपाय अच्छा बन
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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