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तत्वार्थ लोकवार्तिके
अन्यथा अतिप्रसंग हो जायगा। जिन विद्वानोंका यह मत है कि श्रुत तो प्रमाणज्ञान स्वरूप ही है, शब्दस्वरूप या नयस्वरूप नहीं है, उनके यहां उन निर्देश आदिकोंका कथन करना साधनका अंग न होनेके कारण निग्रहस्थान बन बैठेगा । इस कारण कहीं भी किसी भी प्रकारसे प्रश्न और उत्तर, प्रत्युत्तरके बोलनेका व्यवहार न हो सकेगा । अर्थात् साध्यकी सिद्धि करना जहां अभिप्रेत हो रहा है। वहां असाधन अंगों का उच्चारण करना वादीके लिये निग्रहस्थान माना गया है। ज्ञान तो बोला नहीं जा सकता, शब्द ही कहा जायगा । सो उन्होंने श्रुतस्वरूप नहीं माना । ऐसी दशा में प्रश्नका वचन और उसके उत्तरका वचन श्रोता और वक्ताओंके लिये निग्रह प्राप्तिके प्रयोजक हो जायगे । यदि इसपर कोई यों कहे कि वह प्रश्नोत्तर व्यवहार तो श्रुतरूप नहीं है । किन्तु स्वार्थानुमान और परार्थानुमान स्वरूप है । वक्ताका वचन स्वार्थानुमान है और श्रोताका वचनव्यवहार परार्थानुमान हैं, आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि दृष्टान्तमें गृहीत की गयीं अन्वयव्याप्तियां व्यतिरेक व्याप्तिकी भित्तिपर उठनेवाले उस अनुमानकी सभी स्थलोंपर प्रवृत्ति होना नहीं मानी गयी है । प्रत्यक्ष योग्य या अनुमेय पदार्थोंमें अनुमान चलता है । अत्यन्त परोक्ष सुमेरु, राम, रावण, आदिक अथवा परमाणु व्यक्तिएं, अविभाग प्रतिच्छेद, मोक्षसुख, आदिमें अनुमानकी प्रवृत्ति न होने के कारण प्रश्नोत्तर व्यवहारका अभाव हो जायगा, किन्तु यह प्रसंग होना इष्ट नहीं है । क्योंकि वचनों द्वारा उक्त पदार्थोंका आगमज्ञान होता है । दूसरी बात यह है कि निर्देश, स्वामित्व, आदि वचनव्यवहारोंको अनुमानस्वरूप भी माना जाय तो भी कोई क्षति नहीं है । हमारा ही सिद्धान्त आया । मतिको कारण मानकर होनेवाले स्वार्थानुमान और परार्थानुमान दोनों श्रुतज्ञानसे भिन्न नहीं हैं। यानी अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान होना श्रुतज्ञान है और साधनसे साध्यका ज्ञान होना अनुमान है। अतः साधन और साध्यकी भेदविवक्षा करनेपर उत्पन्न हुआ अनुमान तो श्रुतज्ञानस्वरूप ही है। इस कारण निर्देश आदिकोंको उस श्रुतज्ञानका भेदपना ही इष्ट किया गया है। रहा श्रुतज्ञानके प्रमाणपनका निर्णय सो तो श्रुतज्ञानकी प्रमाणताका फिर अग्रिम प्रन्थमें समर्थन कर दिया जायगा । इस प्रकरण में विस्तार हो जानेके भयसे दूसरा प्रमाणपनका प्रकरण नहीं फैलाया जाता है ।
कर्मस्थः पुनरधिगमोऽर्थानामधिगम्यमानानां स्वभावभूतैरेव निर्देशादिभिः कात्स्न्यै कदेशाभ्यां प्रमाणनयविषयैर्व्यवस्थाप्यते । निर्देश्यमानत्वादिभिरेव धर्मैरर्थानामधिगतिप्रतीतेः कर्मत्वात्तेषां कथं करणत्वेन घटनेति चेत् तद्भेदप्रतीतेः । अग्नेरुष्णत्वेनाधिगमयत्यत्र यथा ।
सकर्मक धातुका शुद्ध अर्थ भिन्न भिन्न सम्बन्धोंसे कर्ता कर्म दोनोंमें, स्थान पाता है, अतः कर्त्ता में रहनेवाले अधिगमका ज्ञानस्वरूप निर्देश आदिकों करके होना बता दिया गया है। अब 'कर्ममें ठहरे हुए अधिगम होनेके कारणका विचार चलाते हैं। फिर कर्ममें ठहरा हुआ जानने योग्य पदार्थोंका पूर्णरूप और एकदेशसे हो रहा अनुभव तो उन अर्थोके स्वभावभूत हो निर्देश आदिकों