SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः आराधना करना मोक्ष पुरुषार्थका बीज है । श्रुतज्ञान अंशी होकर प्रमाण है । नय, उपनय, ये श्रुतज्ञानके अंश हैं । 1 वस्तु के कतिपय धर्मोको शद्व द्वारा समझने, समझानेवाले, प्रतिपाद्य, प्रतिपादकोंके ज्ञानका बीज स्याद्वाद वाङ्मय है । स्याद्वाद और अनेकान्तका इतिहास अनादि है । एकान्तोंपर इनकी दिग्विजय भी सनातन है । अनेकान्तका क्षेत्र व्यापक है, जब कि स्याद्वादका प्रतिपाद्य विषय व्याप्य है । अर्थात् बहुभाग अनन्तानंत अनेकान्तोंमें संख्यात संख्यावाले शद्वात्मक स्याद्वादोंकी प्रवृत्ति नहीं भी है । अनेकान्त वाच्य है, स्याद्वाद वाचक है । इनका कर्णधार श्रुतज्ञान है । भव्यमुमुक्षु सम्यज्ञानी आत्मा इन धर्मवैचित्र्यों और विविध वचन कलाओंका प्रभु है । अनन्त धर्मोका अविष्वभाग पिंड हो रही वस्तुके अनुजीवीगुण प्रतिजीवीगुण, आपेक्षिक धर्म, पर्याय शक्तियां, एवं पर्याय,. अविभागप्रतिच्छेद, सप्तभंगीविषय नाना स्वभाव आदि अनेक वृत्तिमान् धर्मोको अनेकान्त कहते ... हैं । एक वस्तुमें विरोधरहित अनेक विधिनिषेधोंकी कल्पना करना सप्तभंगी है। 1 1 ४९३: वस्तुके स्वभाव हो रहे भाव और अभाव ये दो धर्म ही शेष पांच भङ्गोंके व्यवस्थापक हो जाते हैं । सर्वत्र अनेकान्तका साम्राज्य है । किन्तु स्याद्वादप्रक्रिया आपेक्षिक धर्मोमें प्रवर्तती है । अनुजीवी गुणोंमें नहीं । पुद्गल रूपवान् है, आत्मा ज्ञानवान है, मोक्षमें अनन्तसुख है । ऐसे स्थलों -, पर सप्तभंगीका प्रयोग करना अनुचित है । सम्यक्एकान्त तथा मिथ्याएकान्त और सम्यक् अनेकान्त तथा मिथ्या अनेकान्तके समान सप्तभंगीके भी समीचीनसप्तभंगी और मिथ्यासप्तभंगी ये दो भेद होते हैं । स्यात् के साथ अवधारण करनेवाला एवकार भी लगा हुआ है 1 अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंसे घटको अस्ति कहते हैं । उसी समय परसम्बन्धी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों करके घटका नास्तित्व भी प्रस्तुत है । अनुजीवी, प्रतिजीवी हो रहे भाव, अभाव दोनोंका बल समान है। यदि भावपक्षको सामर्थ्यशाली और अभाव पक्षको निर्बल माना जायगा तो निर्बल द्वरा बलवान्की हत्या करनेपर साङ्कर्य - दोष हो जानेके कारण वस्तु स्वयंको भी रक्षित नहीं रख सकेगी। शनैः शनैः भोजन करनेपर मध्यमें अस्पर्शन और अरसनके व्यवधान पड़ रहे जाने जा रहे हैं। भोज्यसे अतिरिक्त व्यञ्जनोंका अरसन भी तत्कालीन व्यवहृत हो रहा है । गोल पंक्ति में लिखे हुये अक्षरोंके ऊपर छेदोंकी गोल पंक्तिवाली चालनीके रख देनेपर व्यव हित हो रहे अक्षर नहीं बांचे जाते हैं । किन्तु उन अक्षरोंके ऊपर चलनीको शीघ्र घुमा देने या डुलादेनेसे वे अक्षर व्यक्त, अव्यक्त पद लिये जाते हैं। यहां चलनी के घुमानेपर शुक्ल पत्रके ऊपर लिखे हुये काले अक्षरोंकी शीघ्र शीघ्र आभा पड जानेसे पत्रकी शुक्लतामें कुछ कालापन और अक्षरों के कालेपन में भूरेपनकी आभा पड जाती है । चक्रमें अनेक लकीरोंको कई रंगोंसे लम्बा
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy