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________________ तत्वार्थ श्लोकवार्तिके विशेष प्रतिपत्ति के लिये अस्ति आदिक शब्दों का प्रयोग करना अनिवार्य है। चाहे बोलो, या न बोलो, स्यात्कार और एवकार अपने काम करनेके लिये वाक्यमें जुड ही जाते हैं । आगे सकलादेश और ४९२ कलादेशका निर्णय किया गया है। शद्वसे कहा गया धर्म प्रधान है। शेष अर्थापत्ति से ज्ञायमान धर्म प्रधान हैं। शोंके गौण, मुख्य दोनों अर्थ अभीष्ट हैं। आदिके तीन भंग निरंश हैं, यानी उनमें एक एक अंश है। चौथे आदिमें दो तीन अंश है । मूल दो भंगोंके उन्नायक अनेक मार्ग हैं | जीव और अस्तिमें कथञ्चित् भेदाभेद है । अनेकान्तरूप अभेद्य किलेमें बैठे हुए स्याद्वादियोंके ऊपर एकान्तवादियोंकी ओरसे दिये गये संकर, व्यतिकर, आदि दोष आघात नहीं पहुंचा पाते हैं । प्रत्युत भूषण बन जाते हैं । अनेकान्त अनेकान्तरूप ही है, यह भी एकान्त इष्ट किया गया है । विवक्षित नयसे साधागया एकान्त भी अनेकान्तका पोषक है । इन सिद्धान्तोंको आचार्य महाराजने श्रीसमन्तभद्राचार्यके वचनोंका प्रमाण देकर साधा है । मूल दो भंगोंकी सिद्धिके पश्चात् दोनों मंगोंकी युगपत् विवक्षा होनेपर अवक्तव्य भंगकी पुष्टि की है। यहां एकान्तवादियोंकी ओर से आये हुए उपद्रवोंका श्रेष्ठ युक्तियोंसे निराकरण किया है । अपनी बुद्धिसे गढ लिया गया भी कोई शब्द दो धर्मो को एकदम नहीं कह सकता है । यहां अवक्तव्य धर्मका बहुत बढिया व्याख्यान किया है। शद्वके द्वारा वास्तविक अर्थ छूना न माननेवाले सौगतोंके प्रतिबाधक प्रमाणोंके, असम्भवका निर्णय हो जानेसे वस्तुव्यवस्था सिद्ध की है । संक्षेपसे चौथे भंगको सिद्ध कर पांचमें भंगके विवादोंको हटाकर अस्त्यवक्तव्यका निरूपण किया है, तथा छठे सातवें भंगका निरूपणकर सूत्रका संकलन कर दिया है । इस सूत्र के भाष्य में अन्य भी अनेक अवान्तर प्रकरणोंका विचार चलाकर सप्तभंग - प्रक्रियाको स्याद्वाद - सिद्धान्त के अनुसार साधा गया है। सहृदय, प्रतिभाशाली, विद्वान्, अनुमनन कर विशेषरूपसे शास्त्ररहस्यको हृदयंगत कर सकेंगे । इस ग्रन्थका जितना गहरा घुसकर विचार किया जायगा, उतना ही रहस्य अधिक प्राप्त होगा । 1 66 स्याद्वाद और अनेकान्त मुमुक्षु जीको आराधने योग्य और सम्यग्ज्ञानका अनन्तवां भाग श्रुतज्ञान है 1 श्रुतज्ञानमें भी. अनभिलाप्य ज्ञानका अनन्तवां भांग शद्ब द्वारा प्रतिपाद्य होता है। क्षपक श्रेणीमें कर्मोंका समूल चूल नाश करनेमें जो शुक्लध्यान होता है, वह श्रुतज्ञानकी ही अंश उपांशोंको जाननेवाली पर्यायोंका पिंड है । मति, अवधि और मन:पर्ययज्ञान कर्मक्षय करने में समर्थकारण नहीं हैं । हां ! श्रुतज्ञानरूप 1 सहस्रधार खड्ग ही घातिकर्म शत्रुओंका नाशकर कैवल्य साम्राज्यलक्ष्मीका अव्यवहितरूपसे सम्पादन करता है । इस ही कारण नय, उपनय, स्याद्वाद, अनेकान्तपद्धति, सप्तभंगी, आदि द्वारा श्रुतज्ञानकी ""
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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