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तत्वार्थ लोकवार्तिके
खींचकर पुनः उसको शीघ्र घुमा देनेपर आभाओंका साङ्कर्य निराखिये । साथ ही मध्यमें रति अन्तरालोंको भी देखते जाइये । चौकीपर धरे हुये भूषणको देखते समय सिंह, सर्पादिका अभाव ही हमको निर्भय कर रहा है । अन्यथा सिंह, सर्प, विष, आदिके सद्भावकी प्रतीति हो जानेपर भूषण, भोजनादिको छोडकर दृष्टा, रसयिता, स्पृष्टा पुरुष न जाने कहां भागता फिरेगा । यों जगत् के सभी व्यवहार लुप्त हो जायेंगे, शून्यवाद छाजायेगा ।
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अतः भाव, अभाव, स्वभाओंसे गुम्फित हो रही वस्तु माननी पडती है । यों स्वकीय देश, देशान्श, गुण, गुणान्शोंसे अस्तित्वस्वरूप और अन्यदीय देश, देशान्श गुण गुणान्शों करके नास्ति स्वरूप हो रहे पदार्थोंमें स्वभावभूत आपेक्षिक धर्मों और सप्तभंगी विषयक कल्पित धर्मोका अवलम्ब लेकर १ स्यादस्ति २ स्यान्नास्ति ३ स्यादवक्तव्य ४ स्यादस्ति नास्ति ५ स्यादस्त्यवक्तव्य ६ स्यान्नात्यवक्तव्य ७ स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य, ये सात वाक्य बना लिये जाते हैं ।
यह अस्तित्वधर्म उस अस्तित्वधर्मसे न्यारा है, जो कि अस्तित्व, वस्तुत्वादि छः सामान्य गुणोंमें अनुजीवी होकर पढा गया है। अस्तित्वके समान नित्यत्व, एकत्व, महीयस्त्व, पूज्यत्व आदि धर्मो आलम्बन पाकर शद्वमुद्रा करके अगणित संख्यात सप्तभङ्गियां हो सकती हैं । और ज्ञानमुद्रासे अनन्ती सप्तभङ्गियां समझली जाती हैं ।
सकलादेश और विकलादेश द्वारा प्रमाण सप्तभङ्गी और नयसप्तभङ्गीका प्ररूपण हो जाता है, यह स्याद्वादका चमत्कार है । अब अनेकान्तके विवरणको यों परखिये
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पुद्गलमें केवलज्ञान, या आकाशमें रूप अथवा मुक्त जीवोंमें मिथ्याज्ञान आदि स्थलोंपर ही विरोधदोष माना जाता है । किन्तु अग्निमें शीतलता, जलमें उष्णता, सूर्यका पश्चिममें उदय होना, विषभक्षणसे आरोग्य होना, एक ज्ञानमें प्रामाण्य, अप्रामाण्य दोनोंका होना, आदि विरोधी सरीखे दीख रहे विषयों में विरोध नहीं है । देखिये
एक देवदत्त पितापन, पुत्रपन, भानजापन, भतीजापन, भाईपन आदि धर्म अविरोधरूपसे वर्त रहे हैं। संयोग सम्बन्धसे पर्वतमें अग्नि है, किन्तु निष्ठत्व सम्बन्धसे अग्निमें वही पर्वत ठहरता है । स्वनिष्ठविषयिता निरूपितविषयिता सम्बन्धसे अर्थ में ज्ञान निवास करता है । साथ ही स्वनिष्ट विषयता निरूपितविषयिता सम्बन्धसे ज्ञानमें अर्थ ठहर जाता है । जन्यत्व सम्बन्धसे बेटेका बाप है । उसी समय जनकत्व सम्बन्धसे तदैव बापका बेटा है । समवाय सम्बन्धसे डालियों में वृक्ष है तदेव तदैव समवेतत्त्वसम्बन्धसे वृक्षमें डालियां हैं । यो धर्मीका धर्म बन जाना और धर्मका धर्मी बन I जाना जैनसिद्धान्त अनुसार कोई विरोध नहीं रखता है । अग्निमें दाहकत्व पाचकत्व, स्फोटकत्व, शोषकत्व, प्रकाशकत्व धर्मोके साथ ही शैत्यसम्पादकत्व धर्म भी है। अग्निसे भुरसे हुयेको अग्निसे ही सेका जाता है । " विषस्य विषमौषधं " " गर्मीका इलाज गर्मी ही है ", जलसे सींचनेपर तो