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तत्वार्थाचिन्तामाणः
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है वह वास्तविक पदार्थ है। अन्य पदार्थ वस्तुभूत नहीं है । एक समय एक ही क्षेत्रमें दो चन्द्रमाको जाननेवाला ज्ञान बाधासहित है । अतः दो चन्द्रमा परमार्थभूत नहीं हैं, तब तो हम कहेंगे कि जिस प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाणद्वारा अनुभवकी जारही तैसी बाधारहित वस्तु यथार्थ है। उसीके समान अविनाभावी हेतु, संकेत ग्रहण किया शब्द, चेष्टा आदिसे उत्पन्न हुए विकल्पज्ञानद्वारा प्रदर्शित किये पदार्थ भी दूसरे देश, अन्य काल, और भिन्न भिन्न व्यक्तियोंसे अबाधित स्वरूप होनेपर वस्तुभूत क्यों न मान लिये जावें । प्रत्यक्ष और विकल्पसे जाने गये विषयमें कोई अन्तर नहीं है। भावार्थ-संपूर्ण देश और सम्पूर्ण काल तथा अखिल व्यक्तियोंके द्वारा जो बाधारहित होकर जान लिया गया है, चाहे वह प्रत्यक्षसे जाना गया हो या विकल्पज्ञानसे जाना हो। वस्तुभूत पदार्थ है । प्रत्यक्ष और विकल्पज्ञानसे जाने गये पदार्थ के परमार्थपनेमें कोई अन्तर नहीं है । तिस कारण सभी प्रकार एकान्तोंकी कल्पनाको उल्लंघन करता हुआ सर्वथा निर्देश्य या अनिर्देश आदिसे विलक्षण जातिवाला पदार्थ ही वस्तुभूत है। ऐसा कहनेसे कथञ्चित् जीव आदि वस्तु अवक्तव्य हैं । इसी बातको भले प्रकार कहा जा चुका है। यहांतक तीसरा भंग अवक्तव्य सिद्ध हुआ ।
"क्रमार्पिताभ्यां तु सदसत्त्वाभ्यां विशेषितं " जीवादि वस्तु स्यादस्ति च नास्तिचेति वक्तुं शक्यत्वाद्वक्तव्यं स्यादस्तीत्यादिवत् ।।
क्रमसे विवक्षित किये गये सत्त्व और असत्त्व धर्मोकरके विशिष्ट होते हुए तो जीव आदि वस्तु कथञ्चित् अस्ति और नास्तिस्वरूप हैं । इस प्रकार कह सकनेके कारण चौथे भंगद्वारा जीव आदि वस्तु कथञ्चित् वक्तव्य हो जावे, जैसे कि स्यादस्ति इत्यादि वाक्योंसे कहने योग्य होनेके कारण स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, और स्यादवक्तव्य इन भंगोंके द्वारा वस्तुको कहने योग्य सिद्ध किया जा चुका है । इस चौथे भंगमें विशेष विवाद नहीं है । अतः थोडे कथनसे ही कार्यसिद्धि हो गयी है ।
कथमस्त्यवक्तव्यमिति चेत् प्रतिषेधशद्धेन वक्तव्यमेवास्तीत्यादि विधिशद्धेनावक्तव्यमित्येके, तदयुक्तं, सर्वथाप्यस्तित्वेनावक्तव्यस्य नास्तित्वेन वक्तव्यतानुपपतेः विधिपूर्वकत्वात् प्रतिषेधस्य । सर्वथैकान्तप्रतिषेधोऽपि हि विधिपूर्वक एवान्यथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानाभावप्रसंगात् । दुर्नयोपकल्पितं रूपं सुनयप्रमाणविषयभूतं न भवतीति प्रतिषेधे सर्वथैकान्तस्य न कश्चिद्याघातः।
___ पांचमा भंग अस्त्यवक्तव्य कैसे बनता है ? ऐसी आक्षेपसहित शंका होनेपर कोई एक विद्वान् ऊपरसे ही समाधान करते हैं कि निषेधवाचक नास्ति शब्द करके तो जीव आदिक वक्तव्य ही हैं, किन्तु अस्ति इत्यादिक विधि ( सत्ता ) वाचक शब्द करके जीव आदिक अवक्तव्य हैं । अतः अस्ति होकर अवक्तव्य हो गया । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार एक विद्वान्का यह कहना युक्ति रहित है। क्योंकि सर्व प्रकारसे भी अस्तित्व धर्मकरके नहीं कहे जाने योग्य जीव आदिकका नास्तिपने करके भी वक्तव्यपन नहीं सिद्ध होता है। कारण कि पूर्वमें जब किसीकी सत्ता प्रतीत हो जाती