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तत्वार्थ लोकवार्त
है, तब पीछे उसका निषेध किया जाता है । अन्यत्र विद्यमान होरहे . घटका रीते भूतल में निषेध करते हैं । खरविषाणका निषेध नहीं हो सकता है । देखो ! सर्वथा एकान्तों का निषेध करना भी अवश्य विधिपूर्वक ही माना गया है। मिथ्याज्ञानी प्रथम गुणस्थानमें मिथ्या अभिनिवेशके वश होकर एकान्तोंको मान लेते हैं और सम्यग्ज्ञानी उन एकान्तोंका निषेध कर देते हैं । अन्यथा यानी एकान्तोंको यदि सभी प्रकारसे न माना जायगा तो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके अभावका प्रसंग होगा । खोटी नयोंसे गढ लिया गया पदार्थका स्वरूप श्रेष्ठ नय और प्रमाणोंका विषयभूत नहीं होता है । इस कारण से भी सर्वथा एकान्तोंका निषेध करनेमें कोई व्याघातदोष नहीं है । अर्थात् एकान्तका निषेध भी विधिपूर्वक ही होता है । अतः पांचमे भंगके लिये एक विद्वान्की बनायी गयी रीति प्रशस्त नहीं है ।
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अस्तित्वविशिष्टतया सहार्पिततदन्यधर्मद्वयविशिष्टतया च वस्तुनि प्रतिपित्सिते तदस्त्यवक्तव्यमित्यन्ये, तदप्यसारम् । तत्रास्त्यवक्तव्यावक्तव्यादिभंगान्तरप्रसंगात् । ततोऽपि सहार्पिततदन्यधर्मद्वयविशिष्टस्य ततोप्यपरसहार्पितधर्मद्वयविशिष्टस्य वस्तुनो विवक्षाया निराकर्तुमशक्तेः प्रतियोगिधर्मयुगलानामेकत्र वस्तुन्यनन्तानां सम्भवात् तेषां च सहार्पितानां वक्तुमशक्यत्वात् अस्त्यनन्तावक्तव्यं वस्तु स्यात् तच्चानिष्टम् ।
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अस्तित्व धर्मकी विशिष्टतासे और एक साथ विवक्षित किये गये उससे भिन्न अस्ति, नास्ति, 'दो धर्मोकी विशिष्टता से वस्तुके जाननेकी इच्छा उत्पन्न होनेपर वह वस्तु कथञ्चित् अस्ति होकर अवक्तव्य है । इस प्रकार अन्य कोई विद्वान् पांचमे भंगकी उपपत्ति कर रहे हैं, वह भी उनका कथन निस्सार है । क्योंकि यों तो उन अस्ति और नास्तिसे भिन्न दूसरे दो धर्मोकी विवक्षा करनेपर दूसरे तीसरे कैई अवक्तव्योंको मिलाकर अस्ति अवक्तव्य - अवक्तव्य आदि अन्य भंगोंके बढजानेका प्रसंग होगा । उससे भी न्यारे अन्य साथ कहने के लिये विवक्षित किये गये और उससे भिन्न दो धर्मो विशिष्ट वस्तुकी तथा उनसे भी भिन्न न्यारे साथ अर्पित किये दो धर्मोसे विशिष्ट वस्तुकी विवक्षाका निराकरण करनेके लिये अशक्ति है । एक वस्तुमें नित्य अनित्य, एकत्व अनेकत्व, इष्ट अनिष्ट, आदि प्रतियोगीस्वरूप अनन्त युगलिया धर्मोका सम्भव है और एक समयमें साथ अर्पणा कर लिये गये
न धर्मो कहनेके लिए अशक्यता होनेके कारण अस्ति होकर अनन्त अवक्तव्य धर्मवाली वस्तु हो जायगी, किन्तु इस ढंगसे वे अनन्त अवक्तव्य धर्म इष्ट नहीं हैं । अतः पांचमे भंगका यह ढंग भी अच्छा नहीं है ।
येन रूपेण वस्त्विति तेन तत्प्रतियोगिना च सहाक्रान्तं यदा प्रतिपत्तुमिष्टं तदास्त्य वक्तव्यमिति केचित्, तेऽपि यावद्भिः स्वभावैः यावन्ति वस्तुनोस्तित्वानि तत्प्रतियोगिभिस्तावद्भिरेव धम्मैः यावन्ति च नास्तित्वानि तद्युगलैः सहार्पितैस्तावन्त्यवक्तव्यानि च रूपाणि ततस्तावन्त्यः सप्तभंग्य इत्याचक्षते चेत् प्रतिष्ठत्येव युक्त्यागमाविरोधात् ।