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तवाचिन्तामणिः
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से अर्थ निकलता है वह प्रधान अर्थ ही है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि शद्वशास्त्रियोंने गौण. और मुख्य अर्थके विषयमें विवाद होनेपर मुख्य अर्थ में भले प्रकार ज्ञान होना परिभाषा द्वारा कहा है । इससे सिद्ध है कि गौण और मुख्य दोनों ही अर्थ शद्वके द्वारा कहे जाते हैं। निश्चय कर घृत ही आयु है । अन्न ही प्राण हैं । इन वाक्योंमें कारणमें कार्यका उपचार किया गया है। अर्थात् घृतका सेवन करना आयुष्यका कारण है । जो मनुष्य घृतको खाते हैं। अधिक वर्षोंतक जीवित रहते हैं । आयुका कारण घृत है । आयु उसका कार्य है । यह आयुके कारण घृतमें आयुष्ट्वरूप कार्यका आरोप है तथा प्राणोंके कारण अन्नमें प्राणपनेका आरोप है । अन्न खानेपर ही मनुष्यके प्राण स्थिर रहते हैं । एवं मचान (मैहरा ) चिल्लाते हैं । खेतको रखानेत्राले मैTपर बैठकर पुकार रहे हैं, गारहे हैं, यहां तत् में रहनेवाले पुरुषोंकी तत्में कल्पना की गयी है। तत्रस्थ होने के कारण तत्पना यह आधारका आधेयमें आरोप है । लठियावाले पुरुषको लाठिया कहना या गाडीवाले पुरुषको गाडी कहना यह सहचरपना होनेके कारण साथ रहनेवाली एक वस्तुका दूसरी साथ रहनेवाली वस्तु या तद्वान्में तत्का उपचार किया गया है। किसी पथिकने एक परिचित मनुष्य को पूंछा अमुक ग्राम कितनी दूर है । वह परिचित हाथका संकेत कर कहता है कि दीखते हुए वृक्ष ही ग्राम है। यहां ग्रामके अतिसमीप होनेके कारण वृक्षोंमें ग्रामपनेका उपचार है। इसी प्रकार बम्बईकी रेलगाडी आनेपर बम्बई आगयी और कलकत्तेकी ओर गाडी जानेपर कलकत्ता जा रहा है । यहां प्रतिमुख अभिमुखपनेसे तैसा शद्वव्यवहार कर लिया जाता है । बम्बई में सिकरनेवाली हुण्डी बम्बई बेचोगे आदि कहना भी कारणवश उपचरितोपचार है । इस प्रकार शके गौण अर्थका स्वयं व्यवहार करनेवाला वादीशद्वका अर्थ सभी प्रधान होता है । इस प्रकारकी कैसे व्यवस्था कर सकता है ? अर्थात् नहीं । और फिर भी बलात्कारसे शद्वका मुख्य ही अर्थ माने, गौण अर्थ न मानें, ऐसा वादी पागल क्यों न होगा । भावार्थ - व्याक्षिप्तजन ही ऐसे कुत्सित आमोंको करता है । अतः सिद्ध हुआ कि शद्वका प्रधान भी अर्थ होता है और गौण भी अर्थ अभीष्ट किया गया है। प्रत्युत उपचार किये गये या गौण किये गये स्थानपर जो मुख्य अर्थका प्रयोग करेगा तो वक्ताकी त्रुटि समझी जायगी । घृतसे आयुष्य बढती है । इसकी अपेक्षा घृत ही आयु है। यह वाक्य महत्त्वका है । ग्रामके अति निकट वृक्ष हैं, इस वाक्यसे ये वृक्ष ही तो ग्राम है, यह वाक्य प्रशस्त है ।
गौण एव च शद्धार्थ इत्यप्ययुक्तं, मुख्याभावे तदनुपपत्तेः, कल्पनारोपितमपि हि सकलं शद्वार्थमाचक्षाणैरगोव्यावृत्तोऽर्थादय बुद्धिनिर्भासी गोशद्वस्य मुख्योऽर्थस्ततोऽन्यो बाहीकादिर्गौण इत्यप्यभ्युपगन्तव्यम् । तथा च गौणमुख्ययोर्वाक्यार्थयोः सर्वैः शत्रव्यवहा रवादिभिरित्वान कस्यचित्तदपह्नवो युक्तोऽन्यत्र वचनानषिकृतेभ्यः ।
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