________________
४६४
तत्वार्थ लोकवार्तिके
ली जाती है । भावार्थ - शद्वके द्वारा तो वस्तुका एक अंग ही सुना जायगा, किन्तु अनुक्त मतिज्ञान या श्रुतज्ञान द्वारा पूर्ण वस्तु समझ ली जाती है । वस्तुको पूर्णरूपसे कहनेकी शद्वमें सामर्थ्य नहीं 1 है । किन्तु एक शद्बसे अपने क्षयोपशमके अनुसार अनेक धर्मोको श्रोता समझ लेता है । तभी तो एक वक्ता के उपदेशको सुनकर श्रोताओंके ज्ञानमें तारतम्य देखा गया है। एक गुरुके पढाये हुए अनेक छात्रोंकी व्युत्पत्ति में न्यूनता अधिकता देखी जाती है। एक छोटासा बालक या बधिरमनुष्य भी अपरिमित अर्थको जान रहा है। विचारा शब्द इतने अर्थको कहांसे कह सकता है। किन्तु अभेदवृत्ति के अनुसार हुए मतिज्ञान और अभेद उपचार कर हुये श्रुतज्ञान तो आश्चर्यजनक व्युत्पत्तिको बढा देते हैं । वाच्य वाचकोंके इस निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध होनेसे हम अपनेको बडा भाग्यशाली समझते हैं ।
तर्हि श्रूयमाणस्येव गम्यमानस्यापि वाक्यार्थत्वात् प्रधानत्वमन्यथा श्रयमाणस्याप्यप्रधानत्वमिति चेन्न, अग्निर्माणवक इत्यादिवाक्यैक्यार्थेनानैकान्तात् । माणवकेऽग्नित्वाध्यारोपो हि तद्वाक्यार्थो भवति न च प्रधानमारोपितस्याग्नेरप्रधानत्वात् ।
तब तो शद्व द्वारा सुने गये अर्थके समान व्युत्पत्तिके द्वारा जान लिये गये अनुक्त अर्थको भी वाक्यार्थपना प्राप्त है । अतः वह गम्यमान भी प्रधानरूपसे वाक्यका अर्थ हो जाओ । अन्यथा सुने गये अर्थको भी प्रधानपना न होय । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि " अग्निर्माणवकः " छोटा बालक अग्नि है । " गौर्वाहीकः " बोझा ढोनेवाला मनुष्य बैल है, इत्यादि वाक्योंके एक एक अर्थ करके व्यभिचार हो जायगा । चंचल बालकमें तेजस्विता होनेके कारण अग्निपनका अध्यारोप करना ही उस वाक्यका अर्थ होता है, किन्तु वह प्रधान अर्थ तो नहीं है । क्योंकि आरोपित अग्निको प्रधानपन प्राप्त नहीं है । अतः शद्वके द्वारा सुना गया अर्थ प्रधान होता है और शेष जान लिया गया अर्थ गौण होता है । बालक अग्नि है। यहां अग्निशा मुख्य अर्थ न लेकर चंचलता तेजस्विपन, उष्ण प्रकृति, आदि आरोपित अर्थ पकडे गये हैं ।
तत्र तदारोपोऽपि प्रधानभूत एव तथा शद्धेन विवक्षितत्वादिति चेत्, कस्तर्हि गौणः शब्दार्थोऽस्तु न कश्चिदिति चेन्न, गौणमुख्ययोर्मुख्ये सम्प्रत्ययवचनात् । घृतमायुरन्नं वै प्राणाः इति कारणे कार्योपचारं, मञ्चाः क्रोशन्ति इति तात्स्थात्तच्छ्द्धोपचारः साहचर्या - ष्टिः पुरुष इति, सामीप्यादक्षा ग्राम इति च गौणं शद्वार्थ व्यवहरन् स्वयमगौणः शब्दार्थः सर्वोऽपीति कथमातिष्ठेत १ न चेदुन्मत्तः ।
तिस प्रकार शद्वके द्वारा विवक्षाको प्राप्त हो जानेके कारण उस बालकमें उस अग्निपनेका आरोप करना भी प्रधानभूत अर्थ है । इस प्रकार कहनेपर तो हम पूछेंगे कि शद्वका गौण अर्थ भला क्या होगा ? बताओ ! यदि तुम यों कहो कि शद्बका गौण अर्थ कुछ भी नहीं है । जो कुछ