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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
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नहीं कहना । क्योंक धर्मी वाचक जीव शद करके प्राणधारणरूप जीवत्व धर्मसे तदात्मक होरही जीव वस्तु कथन की गयी है । केवल धर्मीका ही कथन नहीं । और धर्मवाचक अस्ति शद्ध करके किसी विशेष्यमें विशेषण होकर प्रतीत किये जारहे ही अस्तित्वका निरूपण किया मया है । कोरे अस्तित्वधर्मका नहीं । पुनः यदि कोई यों कहे कि इस ढंगसे तो द्रव्यवाचक शब्द और भाववाचक शब्दोंका विभाग न हो सकेगा। क्योंकि आप जैनोंके वर्तमान कथनके अनुसार सभी द्रव्योंके साथ साथ भाव भी कहे जाते हैं और भाव भी द्रव्यमें; तदात्मक होते हुए ही बोले जाते हैं। आचार्य कहते हैं सो यह तो न कहना । क्योंकि द्रव्यशब्द और भावशब्दके विभागको " नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्यासः " इस सूत्रके भाष्यमें निरूपण कर चुके हैं । भावकी उपाधिसे युक्त द्रव्यकी प्रधानतासे बोले गये शब्द द्रव्यशब्द हैं और द्रव्यमें विशेषण हो रहे भावकी प्रधानतासे कहे गये भावशद्ध हैं। इसका विशेष ऊहापोह नाम आदि सूत्रमें देख लेना। जो भी कोई विद्वान् द्रव्यवाचक शब्द और भाववाचक शब्दोंके विभागको इस प्रकार कहते हैं कि यह पाचक है। यहां पाचक ( रसोइया ) शद्ध विशेष जीव द्रव्यका वाचक है । क्योंकि नैयायिकोंके यहां प्रथमान्त शद्वको मुख्य रूपसे विशेष्य बनाकर शाबोध होता है । पाचक द्रव्य प्रथमान्त होकर मुख्य विशेष्य है तथा इस मनुष्यको ( का ) पाचकपना है । यहां मनुष्य तो गौण हो जाता है और प्रथमान्त होने के कारण पाचकपना धर्म प्रधान हो जाता है। अतः पाचक शब्द द्रव्यवाचक है और पाचकत्व शब्द भाववाचक है, इस प्रकार जो नैयायिक कह रहे हैं, उनके यहां भी पाचकत्व धर्मसे नहीं विशिष्ट होता हुआ केवल पाचक अर्थ तो पाचकशब्दका वाच्य हो ही नहीं सकता है और पाचकरूप आधारमें नहीं आश्रित होता हुआ कोरा पाचकत्व धर्म भी कोई पदार्थ नहीं है । अलीक है। अर्थात् पाचक द्रव्यमें पाचकत्वभाव घुसा हुआ कहा जा रहा है । और पाचकद्रव्य तो पाचकत्वके साथ तदात्मक होरहा बोला जा रहा है। द्रव्य और भावके सर्वथा भेदका खण्डन किया जा चुका है । इस प्रकरणमें विवाद करनेसे अब कुछ साध्य नहीं है। न्याययुक्त बातको स्वीकार कर लेना चाहिये।
- सदादिवाक्यं सप्तविधमपि प्रत्येकं विकलादेशः समुदितं सकलादेश इत्यन्ये, तेऽपि न युक्त्यागमकुशलास्तथा युक्त्यागमयोरभावात् । सकलापतिपादकत्वात् प्रत्येकं सदादिवाक्यं विकलादेश इति न समीचीना युक्तिस्तत्समुदायस्यापि विकलादेशत्वप्रसंगात् । न हि सदादिवाक्यसप्तकं समुदितं सकलार्थप्रतिपादकं सकलश्रुतस्यैव तथाभावप्रसिद्धः । एतेन सकलार्थप्रतिपादकत्वात् सप्तभंगीवाक्यं सकलादेश इति युक्तिरसमीचीनोक्ता, हेतोरसिद्धत्वात् । सदादिवाक्यसप्तकमेव सकलश्रुतं नान्यत्तयतिरिक्तस्याभावात् । अतो न हेतोरसिद्धिरिति चेन्न, एकानेकादिसप्तभंगात्मनो वाक्यस्याश्रुतत्वप्रसंगात्, सकलश्रुतार्थस्य सदादिसप्तविकल्पात्मकवाक्येनैव प्रकाशनात् तस्य प्रकाशितप्रकाशनतयानर्थकत्वात् । तेन सत्यादिधर्मसप्तकस्यैव प्रतिपादनादेकत्वादिधर्मसप्तकस्य चैकानेकादिसप्तविशेषात्मकवाक्येन