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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
सकलादेशके लक्षणमें अव्याप्तिदोष हुआ । तथा सात भंगोंमें से क्रमसे विवक्षित किया गया उभय, अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य और अस्त्यनास्त्यवक्तव्य ये चार वाक्य सदा ही अनेक धर्मस्वरूप वस्तु के प्रकाशक हैं । अतः सकलका आदेश करनेवाले होनेके कारण प्रमाणवाक्य बन बैठेंगे । नयवाक्य नहीं हो सकेंगे । जैनसिद्धान्त के अनुसार उक्त पिछले चार वाक्योंको भी नयवाक्य माना गया है । अतः विकलादेश के लक्षणकी अव्याप्ति हुयी । लक्षणकी सम्पूर्ण लक्ष्यमें गति न हुयी और अलक्ष्य में चले जानेसे अतिव्याप्ति होना भी सम्भव है । अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य ये तीन ही नयवाक्य हैं तथा उभय, अस्त्यवक्तव्य, नास्त्यवक्तव्य और अस्त्यनास्त्यवक्तव्य ये चार ही प्रमाणवाक्य हैं । यह नियम करना तो युक्तिपूर्ण नहीं है । क्योंकि ऐसा नियम करनेपर सिद्धान्तसे विरोध होता है । सिद्धाअन्तमें सातोंको नयवाक्य और सातोंको प्रमाणवाक्य भी सिद्ध किया है । अतः सकलादेश विकलादेशका पूर्वोक्त लक्षण ठीक नहीं है ।
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धर्मिमात्रवचनं सकलादेशः धर्ममात्रकथनं तु विकलादेश इत्यप्यसारं, सच्चाद्यन्यतमेनापि धर्मेणाविशेषितस्य धर्मिणो वचनासम्भवात् । धर्ममात्रस्य कचिद्धर्मिण्यवर्तमानस्य वक्तुमशक्तेः । स्याज्जीव एव स्यादस्त्येवेति धर्मिमात्रस्य च धर्ममात्रस्य वचनं संभवत्येवेति चेत् न, जीवशद्धेन जीवत्वधर्मात्मकस्य जीववस्तुनः कथनादस्ति शब्द्धेन चास्तित्वस्य कचिद्विशेष्ये विशेषणतया प्रतीयमानस्याभिधानात् । द्रव्यशद्वस्य भावशद्वस्य चैवं विभागाभाव इति चेन्न तद्विभागस्य नामादिसूत्रे प्ररूपित्वात् । येऽपि पाचकोऽयं पाचकत्वमस्येति द्रव्यभावभिधायिनोः शद्वयोर्विभागमाहुस्तेषामपि न पाचकत्वधर्मादविशेष्यः पाचकशद्राभिषेयोऽर्थः सम्भवति, नापि पाचकानाश्रितः पाचकत्वधर्म इत्यलं विवादेन ।
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केवल धर्मीको कथन करनेवाला वाक्य सकलादेश है और केवल धर्मको कथन करना तो विकलादेश है, इस प्रकार लक्षण करना भी साररहित है । क्योंकि अस्तित्व, नास्तित्व, आदि अनेक धर्मोमेंसे एक भी किसी धर्मसे नहीं विशिष्ट किये गये कोरे धर्मीका कथन करना असम्भव है अर्थात् सम्पूर्ण धर्मोसे रहित शुद्ध धर्मीका निरूपण हो नहीं सकता है । किसी न किसी धर्मसे युक्त ही धर्मीक कथन किया जा सकता है। धर्मवालेको ही धर्मी कहते हैं । अतः सकलादेशके इस लक्षणमें असम्भव दोष आया । इसी प्रकार किसी भी धर्म में नहीं वर्तते हुए केवल शुद्ध धर्मका भी निरूपण नहीं किया जा सकता है। धर्म में रहनेवाला ही धर्म कहा जा सकता है । अतः विकलादेशका लक्षण भी असंभवदोष से ग्रस्त है। यहां कोई कटाक्ष करते हैं कि कथञ्चित् जीव ही है । इस प्रकार केवल जीवद्रव्यरूप धर्मीको कहनेवाला वचन विद्यमान है और कथञ्चित् है ही, ऐसे केवल अस्तित्व धर्मको कहनेवाला वाक्य भी सम्भवता है । फिर आप जैन वाक्य और केवल धर्मप्रतिपादक वाक्यका निषेध कैसे करते हो ? आचार्य
केवल धर्मके प्रतिपादक
कहते हैं कि यह तो