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________________ तत्वाचिन्तामाणः कथनात् न तस्यानर्थक्यादश्रुतत्वमसंग इति चेन्न, तस्य सकलादेशत्वाभावापत्तेरनन्तधर्मास्मकस्य वस्तुनोऽप्रतिपादनात् । अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मोको कहनेवाले सातों भी वाक्य यदि प्रत्येक अकेले बोले जाय, तब तो विकलादेश है । और सातों भी इकडे समुदित कहे जाय तो सकलादेश है । इस प्रकार दूसरे अन्य वादी कह रहे हैं। वे वादी भी युक्ति और शास्त्रमार्गमें प्रवीण नहीं हैं। क्योंकि तिस प्रकार करके आपके कहे गये अनुसार युक्ति और आगम दोनोंका अभाव है । देखिये ! सम्पूर्ण वस्तुका प्रतिपादक न होनेके कारण प्रत्येक बोला गया अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मको कहनेवाला वाक्य विकलादेश है । इस प्रकारकी युक्ति अच्छी नहीं है। क्योंकि यों तो उन सातों वाक्योंके समुदायको भी विकलादेशपनका प्रसंग होगा । अस्तित्व आदि सातों वाक्य भी समुदित होकर सम्पूर्ण वस्तुभूत अर्थके प्रतिपादक नहीं हैं । सम्पूर्ण द्वादशांग शास्त्र ही वस्तुके सम्पूर्ण अंशोको तिस प्रकार प्रतिपादन करनेवाला प्रसिद्ध हो रहा है । अतः विकलादेशके लक्षणकी अतिव्याप्ति हुई । इस कथनसे सातों भंगोंका समुदायरूप वाक्य ( पक्ष ) सकलादेश है ( साध्य )। संपूर्ण अर्थका प्रतिपादन करानेवाला होनेसे ( हेतु ) यह युक्ति भी अच्छी नहीं है, ऐसा कह दिया गया समझ लेना चाहिये । क्योंकि हेतुको असिद्धपना है । अर्थात् केवल सप्तभंगी वाक्यमें ही संपूर्ण अर्थका प्रतिपादकपना नहीं है, यदि यहां कोई यों कहे कि अस्तित्व, नास्तित्व, आदि सात वाक्योंका समुदाय ही तो संपूर्ण श्रुतज्ञान है। उससे अन्य कोई न्यारा शास्त्र नहीं है। क्योंकि अस्तित्व, आदि सातसे भिन्न कोई वस्त्वंश शेष नहीं बचता है । इस कारण हेतु असिद्ध नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि तब तो एक अनेक, नित्य अनित्य, वक्तव्य अवक्तव्य, आदि धर्मोके सप्तभंगस्वरूप वाक्योंको अश्रुतपनेका प्रसंग होगा । क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रके अर्थका अस्तित्व, आदि सात प्रकार स्वरूप वाक्य करके ही प्रकाशन कर दिया जा चुका है। तब उस एक अनेक, आदि सप्तभंग स्वरूप वाक्यको प्रकाशित किये जा चुके पदार्थका प्रकाशक होनेके कारण व्यर्थपना प्राप्त होता है। यानी अस्तित्व आदि सात वाक्योंने जिस अर्थको पहिले प्रकाशित कर दिया है, उसीका दुबारा प्रकाश एक अनेक आदि सप्तभंगी वाक्यने किया है । यदि कोई यों कहे कि तिस अस्तित्व आदि सप्तभंगीके प्रतिपादक वाक्यने तो अस्तित्व आदि सात धोका ही निरूपण किया है और एकत्व अनेकत्व, आदि सात धर्मोका तो एक, अनेक, उभय, आदि विशेषरूप सात वाक्यों करके निरूपणं किया गया है । अतः व्यर्थ होनेके कारण उस एकत्व आदि सात भंगी वाक्यको श्रुत रहितपनेका प्रसंग नहीं है । सिद्धान्ती कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि तब तो उस सत् आदि सप्तभंग वाक्यको सकलादेशपनके अभावको आपत्ति हो जायगी । कारण कि अनन्तधर्मस्वरूप वस्तुका निरूपण उससे नहीं हो पाया। केवल अस्तित्व नास्तित्वका ही कथन किया गया। शेष अनन्त धर्मोंका कथन तो एक, नित्य, तत्, आदिकी सप्तभंगीसे हो सकेगा।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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