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तत्वार्यचिन्तामणिः
" स्यादस्ति एव जीवः " कथञ्चित् जीव पदार्थ है ही। इस प्रकारके यहां वाक्यमें स्यात् शद्बका भले प्रकार प्रयोग करना योग्य है । यदि " किसी अपेक्षा " इस अर्थको कहने वाले उस स्यात् शब्दका प्रयोग नहीं किया जायगा तो जीवको पुद्गल, आकाश, आदिके अस्तित्वपने करके भी सभी प्रकारोंसे अस्तिपना प्राप्त होगा । तब तो जीवकी पुद्गल आदिसे व्यावृत्ति करना नहीं घटित होगा, किन्तु वहां तिस प्रकार शब्द करके सत्त्वादिककी प्राप्ति नहीं है। यानी पुद्गल आदिके अस्तित्व करके जीवको अस्तित्व प्राप्त नहीं है। यदि तुम प्रकरण, अवसर, योग्यता आदिसे जीवमें पुद्गल आदिके अस्तित्व आदिकी व्यावृत्ति करोगे, तब तो वह शब्दका वाच्यार्थ नहीं हो सकेगा। क्योंकि उन प्रकरण आदिके द्वारा ऊपर ऊपरसे निकाले गये अर्थ तो शद्बके. वाच्य नहीं समझे जाते हैं और वाचक शब्दोंके विना ही हो रही अर्थकी प्रत्तिपत्ति भला शबसे हुयी, यह युक्त नहीं कही जा सकती है। क्योंकि अतिप्रसंग हो जायगा । अर्थात् “ गंगायां घोषः " गंगाका वाच्य अर्थ गंगा तीर भी हो जायगा, जो कि इष्ट नहीं है । लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ तो वाच्यार्थ नहीं होते हैं । इस प्रकार " राजेन्द्र भवतः कीर्तिश्चतुरो हन्ति वारिधीन " यहां प्रकरणसे हन्तिका वाच्यार्थ गच्छति भी निर्दोष हो जाओ। किन्तु ऐसा है नहीं। उक्त वाक्यको तो दोषोंमें परिगाणित किया है इस कारण अनेकान्राका द्योतक स्यात् शद्ब लगाना चाहिये ।
नन्वस्तित्वसामान्येन जीवस्य व्याप्तत्वात् पुद्गलाद्यस्तित्वविशेषैरव्याप्तेर्न तत्प्रसक्तिः । कृतकस्यानित्यत्वसामान्येन व्यासस्यानित्यत्वविशेषामसक्तिवत् । ततोऽनर्थकस्तनिवृत्तये स्यात्पयोग इति चेन्न, अवधारणवैयर्थ्यप्रसंगात् । स्वगतेनास्तित्वविशेषेण जीवस्यास्तित्वावधारणात् प्रतीयते कृतकस्य स्वगतानित्यत्वविशेषेणानित्यत्ववदिति चेत्र, स्वगतेनेति विशेषणात् परगतेन नैवेति संप्रत्ययादवधारणानर्थक्यस्य तदवस्थत्वत्वात् । न चानवधारणकं वाक्यं युक्तं, जीवस्यास्तित्ववन्नास्तित्वस्याप्यनुषंगात् कृतकस्य नित्यत्वानुषंगवत् ।
किसीकी शंका है कि जब सामान्य अस्तिपने करके जीव व्याप्त हो रहा है और पुद्गल आदिके विशेष अस्तित्वों करके जीव व्याप्त नहीं है तो पुद्गल आदिके अस्तित्वसे जीवके अस्तित्वका वह प्रसंग ही प्राप्त नहीं होता है । जैसे सामान्य अनित्यपने करके कृतक व्याप्त हो रहा है । उसको विशेषरूपसे अनित्यपनका प्रसंग नहीं है। तिस कारण उस अनिष्ट पदार्थोकी ओरसे आये हुए सत्त्व आदिकी निवृत्तिके लिये तो स्यात् शद्बका प्रयोग करना व्यर्थ ही है। जिसके आम नहीं खाने हैं उसके पेड गिननेमें क्या लाभ है ! अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि तब तो अवधारण करनेको व्यर्थ हो जानेका प्रसंग होगा। अर्थात् अन्यकी ओरसे जब अस्तित्वके प्राप्त होनेकी सम्भावना ही नहीं है तो नियम करनेवाला एवकार व्यर्थ ही पडता है। यदि कोई यों कहे कि अपने अपनेमें प्राप्त हुए अस्तित्व विशेषण करके जीवके अस्तित्वका एव पदसे अवधारण किया गया है । लोकमें भी ऐसा प्रतीत हो रहा है। जैसे कि किये गये घट, पद, आदि कृतक