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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके पदार्थोंका अपनेमें प्राप्त हो रहे अनित्यपनरूप विशेषण करके नियमसे अनित्यपना है । ग्रन्थकार कहते हैं कि सो भी न कहना। क्योंकि जब अपनेमें प्राप्त हुए अस्तित्व इस प्रकार के विशेषण से परमें प्राप्त हुए अस्तित्व से नहीं ही है, ऐसा भले प्रकार ज्ञान हो ही जायगा, तो फिर अवधारणका व्यर्थ. पना वैसा का वैसा ही तदवस्थ रहा। किन्तु जिसमें अवधारण नहीं है ऐसे वाक्यका बोलना युक्त नहीं । अन्यथा जीवके अस्तिपनका जैसे विधान होगा, वैसे ही उसी समय जीवके नास्तिपनकी भी सिद्धिका प्रसंग होगा । जैसे कि घट, पट, आदिको कृतकपनेका नियम न करनेपर नित्यपनका प्रसंग हो जाता है । तत्रास्तित्वस्यानवधृतत्वात् । कृतकेनानित्यत्वानवधारणे नित्यत्ववत्, सर्वेण हि प्रका रेण जीवादेरस्तित्वाभ्युपगमे तन्नास्तित्वनिरासे वावधारणं फलवत्स्यात् । यथा कृतकस्य सर्वेणा नित्यत्वेन शद्धघटादिगतेनानित्यत्वाभ्युपगमे तन्नित्यत्वनिरासे च नान्यथा, तथावधारणसाफल्योपगमे च जीवादिरस्तित्व सामान्येनास्ति, न पुनरस्तित्वविशेषेण पुद्गलादिगतेनेति प्रतिपत्तये युक्तः स्यात्कारप्रयोगस्तस्य तादृगर्थद्योतकत्वात् । तहां कृतकके साथ अनित्यपनका अवधारण नहीं करनेपर नित्यपनेके प्रसंग समान अवधारण नहीं किये गये अस्तित्व होनेके कारण जीवका अन्य पदार्थोंकी अपेक्षासे भी अस्तित्व प्राप्त होगा । यदि सभी प्रकारोंसे जीव आदिकोंका अस्तित्व स्वीकार करोगे और अजीवकी अपेक्षासे उसके नास्तिपनका निराकरण करोगे, तब तो नियम करना सफल हो सकेगा। जिस प्रकार कि कृतकका शब्द, घट, पट आदि में प्राप्त हुए सम्पूर्ण अनित्यपने करके अनित्यपन माननेपर और उस नित्यत्व के निवारण करनेपर एव लगाना सार्थक होता है । अन्यथा नहीं । तिस प्रकार अवधारणकी सफलताको स्वीकार करनेपर जीव आदिक अस्तित्व सामान्य करके हैं, किन्तु फिर पुद्गल आदिकमें रहनेवाले विशेष अस्तित्व करके तो नहीं हैं । इसकी प्रतीतिके लिये केवल स्यात् इस शद्बका प्रयोग करना युक्त है। क्योंकि उस स्यात्को तिस प्रकार ऊपर कहे गये अर्थका द्योतकपना है । भावार्थ--अवधारण विना वाक्य कहना नहीं कहा गया सरीखा है । और अवधारणकी सफलता स्यात् इस निपातके लगाने पर ही हो सकती है । ननु च योऽस्ति स स्वायत्तद्रव्यव्यक्षेत्रकालभावैरेव नेतरैस्तेषामप्रस्तुतत्वादिति केचित् सत्यम् । स तु तादृशोऽर्थः शद्वात्प्रतीयमानः कीदृशात्प्रतीयते इति शाद्वव्यवहार चिन्तायां स्यात्कारो द्योतको निपातः प्रयुज्यते लिङन्तप्रतिरूपकः । ४५० पुनः शंका है कि जो भी कोई पदार्थ है, वह अपने आधीन रहनेवाले अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों करके ही है। दूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंकरके वह नहीं है । क्योंकि उन दूसरे द्रव्य आदिका प्रकरणमें कोई प्रस्ताव ही प्राप्त नहीं है । फिर तिस अर्थके द्योतन करने के लिये वाक्य में स्यात् पदका ब्रोझ क्यों बढाया जाता है ? ऐसा कोई कह रहे हैं, सो ठीक नहीं है ! 1
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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