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तत्वार्थचिन्तामणिः
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प्रथमतृतीययोः समुदाये तु प्रश्नः पुनरुक्तः, प्रथमस्य तृतीयावयत्वेन पृष्टत्वात् । तथा प्रथमस्य चतुर्थादिभिर्द्वितीयस्य तृतीयादिभिस्तृतीयस्य चतुर्थादिभिश्चतुर्थस्य पञ्चमादिभिः पंचमस्य षष्ठादिना षष्ठस्य सप्तमेन सहभावे प्रश्नः पुनरुक्तः प्रत्येयस्ततो न त्रिचतुः पञ्चषट्सप्तयोगकल्पनया प्रतिवचनान्तरं सम्भवति । नापि तत्संयोगानवस्थानं यतः सप्तभंगीप्रसादेन सप्तशतभंग्यपि जायत इति चोद्यं भवेत् ।
पहिले अस्तित्व और तीसरे अस्तिनास्तिपनके समुदायमें यदि कोई नया प्रश्न खडा किया जायगा, तत्र तो वह प्रश्न पुनः कहा गया होनेसे व्यर्थ पडेगा । क्योंकि पहिला अस्तित्व तो तीसरे उभयका अवयव होनेके कारण पूंछा जा चुका है । एक धर्मके दो अस्तित्वोंका प्रश्न नहीं उठाया जाता । तिस प्रकार पहिलेको चौथे आदिके साथ समुदित कर एवं तृतीयको चौथे अवक्तव्य आदिके साथ मिश्रित कर पूंछा जायगा तो भी पुनरुक्त दोष होगा । क्योंकि ये कुछ तो पांचमें छठे, सातवेंमें पूंछे जा चुके हैं। शेष दो दो अवक्तव्य या दो दो अस्तित्व, नास्तित्व होनेके कारण पुनरुक्त हैं । असंगत कोरी बकवाद है । ऐसे ही चौथे अवक्तव्यको पांचमें अस्त्यवक्तव्य आदिके साथ तथा पांचमें अस्त्यवक्तव्यको छठे नास्त्यवक्तव्य आदिके साथ, एवं छठेको सातवें अस्तिनास्त्यवक्तव्यके साथ सम्मिश्रित करनेपर जो भी प्रश्न किये जावेंगे, वे सब पुनरुक्त समझ लेने चाहिये । तिस कारण इन सात भंगोंके पुनः तीन, चार, पांच, छह और सातके संयोगी भंगोंकी कल्पना कर उत्तर में दिये गये अन्य आठवें आदि प्रतिवचन नहीं सम्भवते हैं । और उन सातों या सातोंके सम्बन्धसे बने हुए अन्य भंगोंके संयोग से पुनः प्रश्नोंके बनानेपर हो सकनेवाला अनवस्थादोष भी नहीं है, जिसके कि सात भंगों के समुदाय के प्रसादसे सात सौ भंगों का भी अथवा इससे भी अधिक असंख्य भंगोंका परिवार उत्पन्न हो जाय । इस प्रकारका आपादन हम जैनों के ऊपर हो सके । भावार्थ - तीनके जैसे सांत बना लिये हैं, इसी प्रकार सातके प्रत्येक भंग सात, द्विसंयोगी इकईस, त्रिसंयोगी पैंतीस, चतुःसंयोगी पैंतीस, पंचसंयोगी इक्कीस, छह संयोगी सात, सप्तसंयोगी एक । इस प्रकार एक सौ सत्ताईस प्रश्न भी बनाये जा सके और एक सौ सत्ताईसके प्रत्येक भंग एक सत्ताईस (१२७) द्विसंयोगी आठ हजार एक ( ८००१ ) और त्रिसंयोगी तीन लाख तेतीस हजार तीनसै पिचहत्तर ( ३३३३७५ ) आदि होते हुए असंख्य प्रश्न बनाये जा सकें । वास्तवमें विचारा जाय तो अपुनरुक्त प्रश्न सात ही हो सकते हैं। अतः अनवस्थादोष नहीं है । हां ! असंख्य धर्मोमें सात प्रश्न उठाकर भले ही असंख्य सप्तभंगी बनालो ! कोई क्षति नहीं है । फलमुख गौ दोषाधायक नहीं होता है ।
नन्वेवं तृतीयादीनामपि प्रश्नानां पुनरुक्तत्वप्रसक्तिरिति चेन्न, तृतीये द्वयोः क्रमशः प्रधानभावेन पृष्टेः प्रथमे द्वितीये वा तथा तयोरपृष्टेः । सत्त्वस्यैवासत्त्वस्यैव च प्रधानतया पृष्टत्वात् । चतुर्थे तु द्वयोः सह प्रधानत्वेन पृष्ठेर्न पुनरुक्तता । पञ्चमे तु सत्त्वावक्तव्यतयोः