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________________ ४२६ तत्त्वार्थकोकवार्तिके असम्भव भी सात विवाद-स्थलोंके सिवाय आठवी आदि विवाद-भूमिके अभाव होनेसे है, तथा उन आठवें आदि विवाद-स्थलोंका अभाव भी क्यों है ? इसका उत्तर यही है कि एक वस्तुमें विधि और निषेधकी विभिन्न कल्पनासे सात ही अविरुद्ध धर्म बन सकते हैं । अन्य आठवें आदि धर्म अविरुद्ध होकर नहीं बनते हैं। उन आठवें आदि धर्मोकी नहीं सिद्धि होनेमें भी यह कारण है कि सात प्रश्नोंके अतिरिक्त अन्य प्रश्नोंकी प्रवृत्ति ही नहीं होती है । यदि कोई बलात्कारसे व्यर्थ ही आठवें आदि प्रश्नोंको उठावें, तो वे प्रश्न विना सम्बन्धके बोले हुए केवल प्रलाप ( बकवाद ) स्वरूप होनेसे प्रत्युत्तर देनेके योग्य नहीं हैं । अर्थात् अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्यके सात ही प्रश्न उठाये जा सकते हैं। आठवें आदि प्रश्नोंको उठानेवाला असम्बन्ध प्रलापी है । जब कि मूल कारण सात ही धर्म है तो उनके निमित्तसे सात विवाद और सात ही जिज्ञासाएँ तथा सात प्रश्न एवं उनके उत्तर सप्तभंगीरूप ही हो सकते हैं । नोंन, मिर्च, धनियांके अकेले और मिलाकर सात ही स्वाद बनते हैं । इन्द्र भी आकर इनसे अधिक स्वादोंको नहीं बना सकता है। तद्धि प्रश्नान्तरं व्यस्तास्तित्वनास्तित्वविषयं समस्ततद्विषयं वा ? प्रथमपक्षे प्रधानभावेन प्रथमद्वितीयप्रश्नावेव गुणभावेन तु सत्त्वस्य द्वितीयप्रश्नः स्यादसत्त्वस्य प्रथमः । वे आठवें नवमें आदि अतिरिक्त प्रश्न किये जाय, उसपर हम जैनोंका यह पूंछना है कि वे प्रश्न न्यारे न्यारे अस्तित्व, नास्तित्वको विषय करनेवाले होंगे ! या मिले हुए उन अस्तित्व, नास्तित्वको विषय करेंगे ? बताओ । पहिला पक्ष लेनेपर तो प्रधानपनसे अस्तित्व, नास्तित्वको यदि पूछा जायगा, तब तो पहिले और दूसरे ही प्रश्न हो गये। यदि सत्त्वको गौण करके और नास्तित्व को प्रधान करके पूंछा जायगा, तो दूसरा प्रश्न ही हुआ तथा असत्त्वको गौणकर और सत्त्वको प्रधानपनेसे पूंछनेपर पहिला ही प्रश्न होगा । भला ये न्यारे प्रश्न कहां हुए ? समस्तास्तित्वनास्तित्वविषये तु प्रश्नान्तरं क्रमतस्तृतीयः सह चतुर्थः प्रथमचतुर्थसमुदायविषयः पञ्चमः द्वितीयचतुर्थसमुदायविषयः षष्ठस्तृतीयचतुर्थसमुदायविषयः सप्तम इति सप्तस्वेवान्तर्भवति । द्वितीय पक्षके अनुसार उन आठवें आदि प्रश्नोंको मिले हुए अस्तित्व, नास्तित्वके विषय करनेवाले कहोगे तो क्रमसे दोनोंको विषय करनेपर तो वह न्यारा प्रश्न तीसरा ही प्रश्न हुआ और अस्तित्व नास्तित्व दोनोंको साथ कहनेका प्रश्न चौथा ही हुआ तथा पहिले अस्तित्व और चौथे अवक्तव्यके समुदायको विषय करता हुआ वह प्रश्न न्यारा न होगा। पांचमा ही है। एवं दूसरे नास्तित्व और चौथे अवक्तव्यके समूहको विषय करनेवाला वह प्रश्न छट्ठा ही होगा तथा तीसरे अस्तिनास्ति उभय और चौथे अवक्तव्यके समुदायमें उठाया गया प्रश्न सातवां ही है । इस प्रकार इन सातों ही प्रश्नोंमें वे आपके अतिरिक्त माने गये प्रश्न भी गर्मित हो जाते हैं। अतः वे न्यारे नहीं माने जा सकते हैं।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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