________________
तत्वार्थचिन्तामाणः
११३
नहीं ऐसी सूक्ष्म अर्थपर्यायोंका निरूपण नहीं होता है। भला आप यह तो विचारो कि मैं यदि उन अर्थपर्यायोंको शब्दके द्वारा आपको समझा देता कि कौनसी अर्थपर्यायें अवाच्य हैं, तब तो वे वाच्य ही हो जातीं, इस प्रकार स्याद्वाद सिद्धान्त निर्दोष सिद्ध हुआ। यानी कुछ पदार्थ वक्तव्य हैं और कुछ पदार्थ अवक्तव्य हैं । बौद्धोंके मतानुसार झूठे विकल्पज्ञानमें प्रतिभास हो रहे विकल्प्य स्वरूप सदृश आकार ही शब्दोंके द्वारा कहे जाने योग्य हैं। किन्तु वास्तविक बहिरंग घट, पट, आदि अर्थ अथवा अन्तरंग अर्थ तो सभी प्रकारोंसे अवाच्य हैं, इस प्रकारका एकान्त तो फिर सिद्ध नहीं हुआ, क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध आ रहा है । दूसरी बात यह है कि वस्तुको शद्बके द्वारा कथन करनेवाले वक्ता करके किसी भी सजातीय, विजातीय, अन्य अर्थसे उद्धार कर जो ही धर्मी अथवा धर्म स्वयं जानकर शद्वके द्वारा कहा जाता है, वही अर्थ मुझ श्रोता करके जान लिया गया है इस प्रकारका अविसंवादी प्रत्यभिज्ञा प्रमाणस्वरूप व्यवहार भले प्रकार प्रसिद्ध हो रहा है। उस प्रमाणभूत व्यवहारके भ्रान्तपनकी व्यवस्था करानेका कोई उपाय नहीं है। अर्थात् बौद्ध अविसंवादी ज्ञानको प्रमाण मानते हैं, प्रत्यक्षके समान प्रत्यभिज्ञान और आगमज्ञान भी अभ्रान्त तथा अविसंवादी हैं । वक्तासे जो कहा जाय, वही श्रोतासे सुना समझा और प्रवृत्त किया जाय अथवा एक प्रमाणसे जाने गये विषयमें दूसरे प्रमाणोंकी प्रवृत्ति होनारूप यह अविसंवाद शद्बसे जन्य वाच्यके समीचीन ज्ञानोंमें है, अतः वस्तुके कतिपय वास्तविक धर्म वक्तव्य सिद्ध हुए।
नन्वेकत्र वस्तुन्यनन्तानां धर्माणामभिलापयोग्यानामुपगमादनन्ता एव वचनमार्गाः स्याहादिनां भवेयुः न पुनः सप्तैव वाच्येयत्वायत्तत्वात् वाचकेयत्तायाः। ततो विरुदैव सप्तभंगीति चेत् न, विधीयमाननिषिध्यमान धर्मविकल्पापेक्षया तदविरोधात् “ प्रतिपर्यायं सप्तभंगी वस्तुनी " इति वचनात् तथानन्ताः सप्तभंग्यो भवेयुरित्यपि नानिष्ट, पूर्वाचार्यैरस्तित्वनास्तित्वविकल्पात्सप्तभंगीमुदाहृत्य " एकानेकविकल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रियां भंगिनीमेनां नयैर्नयविशारद " इति अतिदेशवचनात् तदनन्तत्वस्याप्रतिषेधात् । ____ यहां शंका है कि स्याद्वादियोंने एक वस्तुमें व्यञ्जनपर्यायस्वरूप अनन्तधर्मीको शब्दके द्वारा कथन करने योग्य स्वीकार किया है । अतः अनन्त धर्मोके कहनेवाले वचनोंके मार्ग भी अनन्त ही हो सकेंगे फिर स्याद्वादियोंके यहां सात ही वचनमार्ग तो नहीं हो सकते हैं। क्योंक वाचक शब्दोंका इतना परिमाणपना वाच्य अर्थोके इतने परिमाणपनके अधीन हैं यानी जितने वाच्य हैं, उतनी संख्या वाले वाचक शब्द होने चाहिये । कमती नहीं। अनन्त धर्मोको भला सात शब्द कैसे कह सकते हैं ? तिस कारण स्याद्वादियोंकी सात भंगोंका समाहाररूप सप्तभंगी विरुद्ध ही है । अब आचार्य उत्तर कहते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि विधान करने योग्य और निषेध करने योग्य धर्मके भेदोंकी अपेक्षासे उन सात सात वचन मार्गाके होनेका कोई विरोध नहीं है । प्रत्येक पर्यायका अवलम्ब