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वाकवार्तिक
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लेकर वस्तु सप्तभंगी हो जाती है ऐसा सिद्धान्तवचन है । तिस प्रकार कथन करने योग्य अनन्त विधि, निषेध, द्वारा अनन्त सप्तभंगी भी हो जावें यह भी हमें अनिष्ट नहीं है । पहिलेके पूज्य श्रीसमन्तभद्र आचार्य महाराजने अस्तित्व, नास्तित्व, धर्मोके विकल्पसे सप्तभंगीका उदाहरण देकर आप्तमीमांसा ( देवागम स्तोत्र ) में कहा है कि अस्तित्व, नास्तित्व, धर्मोके समान एक, अनेक, नित्य, अनित्य, तत्, अतत् आदि उत्तरोत्तर धर्मो में भी इस सप्तभंग के अधीन होनेवाली प्रक्रियाको नयवाद प्रवीण स्याद्वादी विद्वान् सुनयों करके युक्तिपूर्वक जोड देवें या समझा देवें । जो नयच - को नहीं जानता है, ऐसे एकान्तवादीका सप्तभंगकी प्रक्रियाकी योजना करनेमें अधिकार नहीं है, . इस प्रकार भगवान् श्री समन्तभद्र आचार्यके श्रद्धा करने योग्य और उपलक्षणरूपसे एक अर्थको समझाकर असंख्य अर्थको कहनेवाले वृद्ध-वाक्यसे उस सप्तभंगीके अनन्तपनका निषेध नहीं है किन्तु विधान है । भावार्थ - किसी भी कथन करने योग्य विवक्षित धर्मको लेकर और उससे प्रतिषेध्य धर्मकी वस्तुभूत कल्पना कर तथा दोनों धर्मोंको युगपत् न कह सकने के कारण अवक्तव्य मानकर तीन धर्म बना लिये जाते हैं । इस प्रकार एक ही पर्याय के प्रत्येक भंग तीन, द्विसंयोगी तीन और त्रिसंयोगी एक यों मिलाकर सात भंग बन जाते हैं । इसी ढंगसे अनन्त धर्मोकी अनन्त सप्तभंगियां हो जाती हैं । शद्बोंके द्वारा संख्यात अर्थ कहे जाते हैं । जैनोंका संख्यात भी दूसरोंके अनन्तसे बडा है । परम्परा व्युत्पत्तिकी अपेक्षासे तो शद्वद्वारा अनन्त अर्थ भी कहा जा सकता है ।
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ननु च प्रतिपर्यायमेक एव भंगः स्याद्वचनस्य न तु सप्तभंगी तस्य सप्तधा वक्तुमशक्तेः । पर्यायशद्वैस्तु तस्याभिधाने कथं तन्नियमः सहस्रभंग्या अपि तथा निषेदुंमशक्तेरिति चेत् नैतत्सारं, प्रश्नवशादिति वचनात् । तस्य सप्तधा प्रवृत्तौ तत्प्रतिवचनस्य सप्तविधत्वोपपत्तेः प्रश्नस्य तु सप्तधा प्रवृत्तिः वस्तुन्येकस्य पर्यायस्याभिधाने पर्यायान्तराणामाक्षेपसिद्धेः ।
पुनः बौद्धकी आक्षेपसहित शंका है कि प्रत्येक पर्यायकी अपेक्षासे वचनका भंग एक ही होना चाहिये । सात भंग तो नहीं हो सकते हैं, क्योंकि एक अर्थका सात प्रकारसे कहना अशक्य है । यदि घट, कलश, कुम्भ या इन्द्र, शक्र, पुरन्दरके समान यहां भी पर्यायवाची सात शद्वों करके उस एकका निरूपण करोगे तब तो उन सातका ही नियम कैसे रहा ? दसों, पचासों, और हजारों, मंगों के समाहारका भी निषेध नहीं कर सकते हो । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहोगे तो यह आप बौद्धोंका कथन साररहित है । क्योंकि सप्तभंगीका लक्षण प्रश्नके वशसे ऐसा पद डालकर कहा है । जब कि वह प्रश्न सात प्रकार से प्रवृत्त हो रहा है तो उसके प्रत्युत्तररूप वचनको सात प्रकारपना युक्त ही है । प्रश्नोंकी सात प्रकारसे प्रवृत्ति होना तो वस्तुमें एक पर्यायके कथन करनेपर अन्य प्रतिषेध्य, अवक्तव्य आदि पर्यायोंके आक्षेप कर लेनेसे सिद्ध है । यानी एकके कथन करनेपर
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