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________________ तत्वार्यश्लोकवार्तिके स्वतः ही सदृश, विसदृशपनकी व्यवस्था हो जायगी, बीचमें तिस प्रकारके परिणामका सम्बन्ध मानना व्यर्थ है । अर्थात् परिणामोंमें सदृशता, विसदृशता, स्वतः मानी जाय और पदार्थोंमें उन परिणतियोंसे सदृशता, विसदृशताकी व्यवस्था की जाय, इस प्रकार परम्पराकी क्या आवश्यकता है ? भावार्थ-सम्पूर्ण पदार्थ अपनी योग्यतासे ही समान और विसमान स्वरूपसे परिणत हो रहे हैं पहिले हीसे तिस प्रकार आत्मलाभ कर रहे हैं। तभी तो जैनसिद्धान्त अनुसार समान परिणाम और विसदृश परिणाम वस्तुके तदात्मक धर्म हैं। समानेतराकारौ विकल्पनि सिनावेव स्वलक्षणेष्वध्यारोप्यते न तु वास्तवावित्यप्ययुक्तं तयोस्तत्र स्पष्टमवभासनात् तद्विकलानां तेषां जातुचिदपतिपत्तेरिति । तथा परिणतानामेव स्वलक्षणानां तथात्वसिद्धिरमतिबन्धा तद्वद्धर्माणामस्तित्वादीनामपीति परमार्थत एव समानाकाराः पर्यायाः शद्वनिर्देश्याः पर्यायिवत् । सूक्ष्मास्त्वर्थपर्यायाः केचिदत्यन्तासमानाकारा न तैनिर्देश्या इति निरवयं दर्शनं न पुनर्विकल्पप्रतिभासिनो विकल्प्यात्मन एव समानाकाराः शबैरभिधेयाः। बाह्यार्थः सर्वथानभिधेय इत्येकान्तः प्रतीतिविरोधात् । प्रतिपादयित्रा य एवोद्धत्य कुतश्चिज्जात्यन्तरादर्थात् स्वयमधिगत्य धर्मी धर्मो वा शद्धेन निर्दिष्टः स एव मया प्रतिपन्न इति व्यवहारस्य विसंवादिनः सुप्रसिद्धत्वाच्च तद्धान्तत्वव्यवस्थापनोपायापायात् । बौद्ध कहते हैं कि हमको स्वलक्षणके सदृशपने और विसदृशपनेकी व्यवस्था करना आवश्यक नहीं है । पदार्थोके समान विसमान आकार तो वस्तुको नहीं छूनेवाले विकल्पज्ञानमें प्रतिभासते हुए ही मोटी बुद्धिवाले व्यवहारियोंके द्वारा स्वलक्षणमें आरोपित कर दिये जाते हैं। वे सदृश, विसदृश, आकार तो वस्तुभूत नहीं हैं । प्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना भी अयुक्त है । क्योंकि उन समान, विसमान, आकारोंका उस स्वलक्षणमें स्पष्टरूपसे प्रत्यक्षद्वारा प्रतिभास हो रहा है । उन सामान्य, विशेष, आकारोंसे रहित हो रहे स्वलक्षणोंकी तो कभी प्रतिपत्ति नहीं होती है । अतः तिस प्रकार समान, असमानरूपसे परिणमन करते हुए ही स्वलक्षणोंके तिस प्रकार सदृश, विसदृशपनकी सिद्धि हो जाती है, कोई प्रतिबन्ध करनेवाला नहीं है । उसीके सदृश अस्तित्व, नास्तित्व, आदि धर्मो या उनके भी सदृश, विसदृशपनेकी बाधारहित सिद्धि हो जाती है। इस प्रकार वास्तविकरूपंसे ही विद्यमान हो रहीं सदृश आकाररूप पर्यायें तो शद्वोंके द्वारा कथन करने योग्य हैं । जैसे कि समान पर्यायोंसे युक्त अशुद्ध द्रव्यरूप पर्यायी पदार्थ शद्बोंका वाच्य है। हां ! सूक्ष्म अर्थपर्यायें तो कोई अत्यन्तपनेसे असमान आकारवाली है। भावार्थ-घट, पट, गौ, घोडा, आदि व्यक्त पर्याय या पर्यायी पदार्थ तो शद्बोंके वाच्य हैं और दुग्ध, घृत, शर्करा, मिश्री आदिके मीठेपनके तारतम्य समान अनेक ज्ञानांश, कषायांश, वेदनांश आदि अर्थपर्यायोंका शद्बोंद्वारा कथन नहीं हो पाता है । अतः समान ही अर्थाका प्रतिपादन करनेवाले शद्बोंद्वारा किसीके समान
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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