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________________ तत्वार्थचिन्तामाण: ३७९ क्रियाविरोध एव परिच्छेद्यस्य रूपस्य सर्वथा परिच्छेदकस्वरूपादभिन्नस्योपगतेश्च । कथञ्चिद्भेदवादिनां तु नायं दोषः । सभी प्रकारोंसे कर्तापन, करणपन, कर्मपन और क्रियापनका अभेद होना हम स्वीकार नहीं करते हैं । उन कर्ता, करण, कर्म और क्रियाओंका कर्त्तापन आदि न्यारी न्यारी शक्तियोंके निमित्त से किसी अपेक्षा भेद भी सिद्ध हो रहा है । अथवा एक ज्ञान धर्मी में कर्तापन आदिका सर्वथा अभेद नहीं है, किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा कथञ्चित् अभेद है । और कर्तापने आदि पर्यायोंकी अपेक्षा कथञ्चित् भेद है । तिस कारण ज्ञान जिस स्वरूपकरके अर्थको जान रहा है, उस ही स्वरूपकरके यदि स्वयं अपनेको जानता है, इस प्रकार कहने वाले - वादियोंके यहां तो अवश्य ही स्वात्मामें क्रियाके होनेका विरोध है ही । "क्योंकि जानने योग्य स्वरूपको ज्ञापक स्वरूप करणसे सभी प्रकार अभिन्न मान लिया गया है। विचारकर देखो तो बैलमें स्वयं चलने और गाडी चलाने के स्वभाव न्यारे न्यारे हैं । दीपकमें भी अपनेको प्रकाश करनेवाली और घट आदिकको प्रकाश करनेवाली शक्तियां न्यारी न्यारी हैं। अतः एक ही स्वभावसे स्वको और अर्थको जानने माननेवालोंके मतमें स्वात्मनि क्रियाविरोध नामका दोष अवश्य लागू होगा । किन्तु उन ज्ञेयस्वरूप और ज्ञायक स्वभावका कथञ्चित् भेद माननेवाले स्याद्वादियोंके यहां तो यह दोष लागू नहीं होता है । ननु च येनात्मना ज्ञानमात्मानं व्यवस्यति येन चार्थे तौ यदि ततोऽनन्यौ तदा तावेव न ज्ञानं तस्य तत्र प्रवेशात् स्वरूपवत् ज्ञानमेव वा तयोस्तत्रानुप्रवेशात्, तथा च न स्वार्थव्यवसायः, यदि पुनस्तौ ततोऽन्यौ, तदा स्वसंवेद्यौ, स्वाश्रयज्ञानवेद्यौ वा प्रथम पक्षे स्वसंविदितज्ञानत्रयप्रसंगः तत्र च प्रत्येकं स्वार्थव्यवसायात्मकत्वे स एव पर्यनुयोगोऽ नवस्था च । द्वितीयपक्षेऽपि स्वार्थव्यवसायहेतुभूतयोः स्वस्वभावयोर्ज्ञानं यदि व्यवसायात्मकं तदा स एव दोषोऽन्यथा प्रमाणत्वाघटनात् । ततो न स्वार्थव्यवसायः सम्भवतीत्येकान्तवा - दिनामुपालम्भः, स्याद्वादिनां न, यथाप्रतीति तदभ्युपगमात् स्वार्थव्यवसायस्वभावद्वयात् कथञ्चिदभिन्नस्यैकस्य ज्ञानस्य प्रतिपत्तेः, सर्वथा ततस्तस्य भेदाभेदयोरसम्भवात्, तत्पक्षभाविदूषणस्य निर्विषयत्वाद्दृषणाभासतोपपत्तेः । यहां स्वको और अर्थको जाननेवाला ज्ञान है । इस प्रकार माननेवाले जैनोंके ऊपर बौद्धों का कटाक्ष है कि जिस स्वभाव करके ज्ञान अपना निश्चय करता है और जिस स्वभाव करके अर्थका निश्चय करता है । ज्ञानके वे दोनों स्वभाव यदि उस ज्ञानसे अभिन्न हैं तब तो उन दो स्वभावोंको ही 1 मानो ! ज्ञानको मत मानो ! क्योंकि उस ज्ञानका उन दोनों स्वभावोंमें अन्तर्भाव हो जायगा । जैसे
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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