________________
तवा लोकवार्तिके
सन्निकर्ष, आदिको ज्ञप्ति क्रियाके साधकतमपनेका खण्डन कर दिया गया है। उस ज्ञप्ति क्रियामें ज्ञानको ही करणपना युक्तियोंसे सिद्ध हो चुका है ।
३७८
ननु यदेवार्थस्य ज्ञानक्रियायां ज्ञानं करणं सैव ज्ञानक्रिया, तंत्र कथं क्रियाकरणव्यवहारः प्रातीतिकः स्याद्विरोधादिति चेन्न, कथञ्चिद्भेदात् । प्रमातुरात्मनो हि वस्तुपरिसाधकतमत्वेन व्यापृतं रूपं करणम्, निर्व्यापारं तु क्रियोच्यते, स्वातन्त्र्येण पुनर्व्याप्रियमाणः कर्तात्मेति निर्णीतप्रायम् । तेन ज्ञानात्मक एवात्मा ज्ञानात्मनार्थ जानातीति कर्तृकरण क्रियाविकल्पः प्रतीतिसिद्ध एव । तद्वत्तत्र कर्मव्यवहारोऽपि ज्ञानात्मात्मानमात्मना जानातीति घटते ।
1.
यहां [ साक्षेप ] शंका है जो ही अर्थकी ज्ञानक्रिया करनेमें ज्ञानकरण है वही तो ज्ञानक्रिया है । फिर भला उसमें क्रियापने और करणपनेका व्यवहार कैसे प्रमाणप्रतीतियोंसे सिद्ध माना जावेगा । यह तो ठेठ विरोध दीख रहा है । जो ही ज्ञानक्रिया है, भला वही करण कैसे हो सकता है ? आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो शंका नहीं करना । क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त ज्ञप्तिक्रियाका और करणज्ञानका किसी अपेक्षासे भेद माना गया है। जैसे कि अग्निका दाहक परिणाम और दाक्रिया न्यारी है । प्रमितिको करनेवाले आत्माके वस्तुकी ज्ञप्ति करनेमें प्रकृष्ट उपकाकप व्यापार करनेवाले स्वरूपकों तो करणज्ञान कहते हैं और व्यापाररहित शुद्धज्ञानरूप श्रात्वर्थको ज्ञप्तिक्रिया कहते हैं । तथा " स्वतन्त्रः कर्त्ता " फिर स्वतन्त्रतासे व्यापार करनेमें लग रहा कर्ता आत्मा है । इस सिद्धान्तको पहिले हम बहुभाग निर्णीत कर चुके हैं । तिस कारण ज्ञानस्वरूप ही आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव करके अर्थको ज्ञानस्वरूपपन जानता है । इस प्रकार कर्ता, कर्म और क्रियाके आकारोंका विकल्प करना प्रतीतियोंसे सिद्ध ही है । तिन ही के समान उस ज्ञानमें कर्म - का व्यवहार भी प्रतीतिसिद्ध समझ लेना । ज्ञानस्वरूप आत्मा अपने ज्ञानस्वरूपको अपने ज्ञानस्वरूप करके ही जानता है यह समचिनि व्यवहार होना घट जाता है । " जानातीति ज्ञानं " जो जानता है, वह ज्ञान है । इस प्रकार कर्ता युट् प्रत्यय करनेसे ज्ञानका अर्थ आत्मा हो जाता है। और " ज्ञायते अनेन " ऐसा करणमें युद्ध करनेसे ज्ञानका अर्थ प्रमाणरूप करणज्ञान हो जाता है तथा " ज्ञायते यत् ” ऐसा कर्ममें युट् करनेपर - ज्ञानका अर्थ स्वयं ज्ञानका स्वरूप हो जाता है. " ज्ञानं ज्ञप्तिर्वा ज्ञानं " इस प्रकार, भावमें युद्ध करनेपर ज्ञानका अर्थ ज्ञप्तिक्रिया हो जाता है । ज्ञान पदार्थ में अनेक स्वभाव हैं । अतः भिन्न भिन्न निमित्तोंकी अपेक्षासे कर्ता, कर्म, करण, और क्रियापन बन जाता है ।
1
सर्वथा कर्तृकरणकर्मक्रियानामभेदानभ्युपगमात्, तासां कर्तृत्वादिशक्ति निमित्तत्वात् कथचिद्भेदसिद्धेः । ततो ज्ञानं येनात्मनार्थं जानाति तेनैव स्वमिति वदतां स्वाम