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तत्वार्थ लोकवार्तिके
कि दोनों स्वभावोंके स्वभाव ( निजस्वरूप ) का तादात्म्य होनेके कारण दोनों स्वभावोंमें गर्भ हो जाता है। अथवा ज्ञान और ज्ञानके दोनों स्वभाव यदि अभिन्न हैं तो अकेले ज्ञानको ही मान लिया जाय । उसके दो स्वभावोंको नहीं मानो ! उन दोनों स्वभावोंका उस ज्ञानमें अन्तर्भाव हो जायगा और तिस प्रकार अबस्था होनेपर ज्ञानके द्वारा स्व और अर्थका निर्णय होना नहीं बनता है । यदि जैन फिर उन दोनों स्वभावोंको उस ज्ञानसे भिन्न मानेंगे, तब तो हम बौद्ध पूंछेंगे कि वे ज्ञानके दोनों स्वभाव अपनेको अपने आप जान लेते हैं अथवा अपने आधारभूत ज्ञानके द्वारा दोनों जाने जाते हैं ? बतलाइये । पहिला पक्ष प्रहण करनेपर तो जैनोंको अपने आप अपनेको जाननेवाले तीन स्वसंवेदी ज्ञान माननेका प्रसंग होगा। एक तो आधारभूत ज्ञान स्वसंविदित माना, दूसरे उसमें रहनेवाले भिन्न दो स्वभाव स्वसंवेद्य मानें। फिर उन तीनों ज्ञानोंमें भी प्रत्येकको स्व और अर्थका निश्चयात्मकपना माना जायगा तो वे ही दो प्रश्न पुनः उठाये जायेंगे । अर्थात् वे तीनों ज्ञान या एकज्ञान दो स्वभाव विचारे जिस स्वभावसे अपना और जिस स्वभावसे अर्थका निर्णय करते हैं वे स्वभावज्ञान से भिन्न हैं या अभिन्न हैं ? बताओ । अभेद पक्षलेनेपर दो स्वभावोंको ही मानो ! या अकेले ज्ञानको ही मानो ! तीनको माननेकी क्या आवश्यकता है ? और तैसा माननेपर ज्ञानके द्वारा स्व और उससे न्यारे अर्थका व्यवसाय होना नहीं बन पाता है । भेद पक्ष लेनेपर यद्यपि यह दोष तो लागू नहीं होता है, किन्तु उनको स्वसंवेद्य माना जायगा तो नौ ९ स्वसंविदित ज्ञान मानने पडेंगे और फिर उन नौ ज्ञानोंमें भी प्रत्येकको स्वार्थ निश्चायक मानते हुए यह प्रश्नमाला तदवस्थ रहेगी और महती अनवस्था हो जायगी। दूसरा पक्ष लेनेपर अर्थात् ज्ञानके भिन्न दो स्वभावोंको उनके आधारभूत ज्ञानके द्वारा वेद्य माना जावेगा तो भी स्व और अर्थके निश्चय करानेके कारणभूत उन अपने दोनों स्वभावोंका ज्ञान यदि निश्चयात्मक है तब तो फिर वही दोष लागू होगा । भावार्थभिन्न दो स्वभावको ज्ञानके द्वारा स्वव्यवसायी माननेपर भिन्न भिन्न अनेक स्वभावोंकी कल्पना करनी पडेगी और वे स्वभाव भी अपने अपने आधारभूत ज्ञानोंके द्वारा जानने योग्य होंगे । अतः पुनः वे ही प्रश्न उठाये जावेंगे और महान् अनवस्था दोष होगा । अन्यथा यानी अपने स्वभावोंको जाननेवाला ज्ञान यदि निश्चयात्मक न माना जायगा तो उसमें प्रमाणपना घटित न होगा क्योंकि जैन लोग निश्वयात्मक ज्ञानको ही प्रमाण मानते हैं । तिस कारण हम बौद्ध कहते हैं कि ज्ञानके द्वारा अपना और अर्थका निश्चय होना नहीं सम्भवता है । अब आचार्य महाराज कहते हैं कि इस प्रकार एकान्तवादी बौद्धोंका उलाहना बौद्धोंके ऊपर ही लागू होता है । स्याद्वादियोंके ऊपर कोई दोष नहीं आता है। क्योंकि हम स्याद्वादी प्रतीतिके अनुसार उस व्यवस्थाको स्वीकार करते हैं। अपने और अर्थके निश्चय करानेवाले दो स्वभावोंसे किसी अपेक्षा अभिन्न ऐसे एक ज्ञानकी विश्वाससहित प्रतीति हो रही है । ज्ञानके स्वभावसे ज्ञानका सर्वथा भेद या अभेद होना असम्भव है । अतः बौद्धोंकी ओरसे दिये गये सर्वथा भेद या अमेद पक्षमें होनेवाले दूषणोंका यह स्थल नहीं है । आधारभूत
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