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________________ ३५४ तत्त्वार्थलोकवार्तिक नहीं देख रहा है इत्यादि ग्रन्थका विरोध वैसाका वैसा ही अवस्थित रहेगा। अन्यथा इसको मैं देख रहा हूं। इसको मैं नहीं देख रहा हूं। इस प्रकार दो विकल्पोंके उत्पन्न न होनेपर भी प्रत्यक्ष किये हुए पदार्थके निर्णीत व्यवहार करा देनेका प्रसंग होगा। भावार्थ-इतर पदार्थोका निषेध करनेपर ही प्रकृत पदार्थका निर्णय होता है । आगे पीछेके परिणामोंका निषेध करते हुए ही मध्यवर्ती परिणामोंका अवधारण हो सकेगा । केवल घटका ही निश्चय तब हो सकता है जब कि अन्य पट आदिकोंके अभावका निश्चय कर दिया जाय । यदि उन अन्य पूर्व अपरवर्ती ज्ञानक्षणोंके व्यवधानका विकल्प नहीं होनेपर भी इस वर्तमान क्षणमें उस विकल्प करके केवल संवेदनके अनुभवका निश्चय मान लिया जावेगा तो वही अनुमानके निष्फल हो जानेका दोष लागू रहेगा । इस प्रकार यह बौद्धोंका स्वमत-पोषण करना मन चाहा जो कुछ भी कहना है । इसमें तत्त्व कुछ नहीं है । " मुखमस्तीति वक्तव्यम् " मात्र है । ... एतेनानुमानादनुभवस्य पूर्वोत्तरक्षणव्यवच्छेदः सिध्यतीति निराकृतं स्वतस्तेनाध्यक्षतो व्याप्तेरसिद्धः, परतोनुमानाद सिद्धावनवस्थाप्रसंगात् । ___ इस पूर्वोक्त कथन करके इसका भी निराकरण हो गया कि अनुमानसे पूर्व उत्तर क्षणवर्ती परिणामोंका व्यवधान सिद्ध हो जाता है। क्योंकि अनुमानमें व्याप्तिकी आवश्यकता है। अपने आप तो इस साध्यके साथ हेतुकी प्रत्यक्षप्रमाणसे व्याप्ति बन जाना सिद्ध नहीं होता है । मालाके दानोंका अन्तराल जैसे प्रत्यक्षगम्य है । उसी प्रकार सत्त्व आदि हेतुओंके साथ रहनेवाला क्षणोंका मध्यवर्ती अन्तराल प्रत्यक्षगम्य नहीं है, दूसरी बात यह है कि अनुमाताओंका प्रत्यक्ष सम्पूर्ण देशकालके पदार्थाका उपसंहार ( संकोच ) नहीं कर सकता है और व्याप्ति तो सब देश और कालके प्रकृत साध्य, हेतुओंका उपसंहार करनेवाली होती है । यदि दूसरे अनुमानसे प्रकृत अनुमानमें पडे हुए साध्योंकी व्याप्तिका निर्णय सिद्ध करोगे तो अनवस्थादोष होनेका प्रसंग आता है । व्याप्तिका निर्णय यदि अनुमानसे होने लगे तो अनवस्थादोष स्पष्ट ही है। अनुमानके उत्थानमें व्याप्तिकी आवश्यता पडनेकी आकांक्षा बढ़ती चली जावेगी। ___विपक्षे बाधकप्रमाणबलाद्याप्तिः सिद्धेति चेत्, किं तत्र बाधकं प्रमाणम् ? न तावद ध्यक्षं तस्य क्षणिकत्वनिश्चायित्वेनाक्षणिके बाधकत्वायोगात् । नाप्यनुमानं क्षणिकत्वविषयं तस्यासिद्धव्याप्तिकत्वात् । प्रथमानुमानात्तव्याप्तिसिद्धौ परस्पराश्रयणात्। सति सिद्धव्याप्तिके विपक्षे बाधकेऽनुमाने प्रथमानुमानस्य सिद्धव्याप्तिकत्वं तसिद्धौ च तत्सद्भाव इति । विपक्षे बाधकस्यानुमानस्यापि परस्माद्विपक्षे वाधकानुमानायाप्तिसिद्धौ सैवानवस्था । निश्चयसे साध्यके अभाववाले विपक्षमें हेतुके सद्भावका बाधक प्रमाण है। इस सामर्थ्यसे हेतुकी साध्यके साथ व्याप्ति सिद्ध हो जावेगी । ऐसा कहने पर तो बौद्धोंके प्रति हम प्रश्न करते हैं
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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