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तत्वार्यचिन्तामणिः
कि बताओ, वहां बाधक प्रमाण कौनसा है ? सबसे पहिले प्रत्यक्ष प्रमाण तो बाधक है नहीं, क्योंकि वह तो क्षणिकपनेका निश्चय करानेवाला माना गया है । अतः अक्षणिकपनेमें बाधक नहीं हो सकता है । शुक्लको जाननेवाला प्रत्यक्ष कृष्ण आदिका निषेध करनेवाला नहीं होता है । विशिष्ट बात यह है कि प्रत्यक्षज्ञान विचारक नहीं है । वह इतने व्याप्ति सम्बधी विचारोंको नहीं कर सकता है । क्षणिकपनेको विषय करनेवाला अनुमान प्रमाण भी विपक्षमें बाधक प्रमाण नहीं है। क्योंकि स्वयं उस अनुमानमें पडे हुए सत्त्व और क्षणिकत्वकी व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकी है। जो स्वयं रुग्ण है वह दूसरोंकी चिकित्सा क्या करेगा ? पूर्वोत्तर क्षणोंके मध्यवर्ती व्यवच्छेदको सिद्ध करनेवाले पहिले अनुमानसे इस क्षणिकत्वको सिद्ध करनेवाले अनुमानकी व्याप्तिको साधोगे तो अन्योन्याश्रयदोष होगा। जो कि इस प्रकार है । विपक्ष में हेतुके सद्भावका बाधक अनुमानकी उत्थापक व्याप्तिके सिद्ध हो चुकनेपर पहिले अनुमानका व्याप्ति सिद्ध हो चुकनापन बनता है, और सिद्ध हो चुकी है हेतुके साथ व्याप्ति जिसकी ऐसे प्रथम अनुमानके सिद्ध हो जानेपर इस प्रकृत अनुमानकी सिद्धि हो । विपक्ष बाधा करनेवाले अनुमानकी व्याप्तिका निर्णय भी यदि विपक्षमें बाधा करने वाले दूसरे अनुमानसे साधोगे तो फिर वही अनवस्थादोष होगा ।
_ एतेन व्यापकानुपलम्भात् सत्त्वस्य क्षणिकत्वेन व्याप्तिं साधयन् निक्षिप्तः । सत्त्वमिदमर्थक्रियया व्याप्तं सा च क्रमयौगपद्याभ्यां ते चाक्षणिकाद्विनिवर्तमानेऽर्थक्रियां स्वव्याप्यां निवर्तयतः सापि निवर्तमाना सत्त्वं । ततस्तीरादर्शिशकुनिन्यायेन क्षणिकत्व एव सत्त्वमवतिष्ठत इति हि प्रमाणान्तरं क्रमयौगपद्ययोरर्थक्रियया तस्याश्च सत्त्वेन व्याप्यव्यापकभावस्य सिद्धौ सिध्यति । तस्य वाध्यक्षतः सिध्यसम्भवेनुमानान्तरादेव सिद्धौ कथमनवस्था न स्यात् १ |
जहां व्यापक ही नहीं है वहां व्याप्य तो भला कैसे भी नहीं रहता है । जैसे वृक्षके न रहने पर शीशमका न रहना । अतः अक्षणिकरूप विपक्षमें अर्थक्रिया और क्रम. यौगपद्यरूप व्यापकों के न दीखने से व्याप्यरूप सत्त्व भी नहीं दीखता है । अतः सत्व हेतुकी अक्षणिकत्वके साथ व्याप्ति सिद्ध हो जाती है । ऐसा भी कहनेवाला बौद्ध इस उक्त कथनसे तिरस्कृत हो जाता है । बौद्ध यों साध रहा है कि यह सत्त्व हेतु अर्थक्रिया के साथ व्याप्ति रखता है और वह अर्थक्रिया क्रम और यौगपद्यके साथ व्याप्त है वे क्रम और यौगपद्य यदि अक्षणिक पदार्थसे निवृत्त होवेंगे तो अपने व्याप्य अर्थक्रियाको साथमें निवृत्त करा लेवेंगे तथा वह अर्थक्रिया भी निवृत्त होती हुयी अपने व्याप्य सत्त्वको हटा लेवेगी । अर्थात् जैसे घोडे आदिक पशुओंसे निवृत्त होता हुआ मनुष्यत्व अपने व्याप्य माने गये ब्राह्मणत्व, गौडत्व, आदिको भी निवृत्त करा देता है, तैसे ही जो सत् पदार्थ है, उसमें अर्थक्रिया अवश्य होवेगी और अर्थक्रिया जो होगी वह अवश्य क्रम या युगपत्पनेसे ही होगी । कूटस्थ नित्यमें क्रम और युगपत्पना नहीं है । अतः अर्थक्रिया भी नहीं है । अर्थक्रिया
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