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तत्त्वार्यचिन्तामणिः
इदानीमेवानुभवनं स्पष्टं न पूर्व न पश्चादिति प्रतीतेः क्षणिकं संवेदनमिति चेत्, स्यादेवं यदि पूर्व पश्चाद्वानुभवस्य विच्छेदः सिध्येत् । न चासौ प्रत्यक्षतः सिध्यति तदनुमानस्य वैफल्यप्रसंगात् । पश्यन्नपीत्यादिग्रन्थस्य विरोधात् । प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पादिदानीमनुभवनं ममेति निश्चयानोक्तग्रन्थविरोधः । तद्बलादिदानी सेवेत्यनिश्चयाच्च नानुमाने नैष्फल्यं ततस्तथा निश्रयादिति चेत्, नैतत्सारम् । प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्येदानीमनुभवो मे न पूर्व पश्चाद्वेति विधिनिषेधविषयतयानुत्पत्तौ वर्तमानमात्रानुभवव्यवस्थापकत्वायोगात् । पश्यन्नपीत्यादिविरोधस्य तदवस्थत्वादन्यथा सर्वत्रेदमुपलभे नेदमुपलभेऽहमिति विकल्पद्वयानुत्पत्तावपि दृष्टव्यवहारप्रसंगात् । तदन्यव्यवच्छेदविकल्पाभावेऽपीदानीं तेनानुभवननिश्वये तदेवानुमाननैष्फल्यमिति यत्किचिदेतत् ।
बौद्ध कहते हैं कि इस समय वर्तमानकालमें ही स्पष्ट अनुभव हो रहा है, पहिले पीछे समयोंमें नहीं, इस प्रकार प्रतीति होनेसे एक क्षणवर्ती संवेदन ही सिद्ध हुआ । यों बोलने पर तो अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धों का कहना तो तब सिद्ध होता कि यदि स्पष्ट अनुभवका पहिले और पीछे कालके परिणामोंसे व्यवधान सिद्ध हो जाता, किन्तु वह अन्तराल तो प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं हो रहा है, ऐसी दशामें मध्यवर्ती अकेले क्षणिकज्ञानका स्पष्ट अनुभव कैसे माना जा सकता है ! | यदि अन्तरालकी प्रत्यक्षसे सिद्धि हो गयी तो उसके अनुमान करनेकी निष्फलताका प्रसंग होता है। और आपके इस ग्रन्थवाक्यका भी विरोध होता है कि “ पश्यन्नपि न पश्यति " देखता हुआ भी नहीं देख रहा है । जब कि भूत, भविष्यत् क्षणोंके मध्यवर्ती अन्तरालका प्रत्यक्ष हो रहा है फिर बलात्कारसे अन्तरालका प्रत्यक्ष न होना क्यों कहा जाता है ? । इसपर यदि आप बौद्ध यों कहें कि प्रत्यक्षज्ञानके पीछे होनेवाले विकल्पज्ञानसे " इस समय मुझको स्पष्ट अनुभव है " इस प्रकार निक्षय हो जाता है । अतः हमारे कहे हुए कथनका हमारे सिद्धान्तग्रन्थ से कोई विरोध नहीं है । तथा प्रत्यक्ष और विकल्पकी सामर्थ्यसे " इस ही समय अनुभव है ऐसा पक्का निश्चय नहीं हो पाया 1 अतः अनुमानमें भी निष्फलता नहीं है । तिस प्रकारका निश्चय उस अनुमानसे कराया जाता है । ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि बौद्धों का यह कहना साररहित है । क्योंकि प्रत्यक्षके पीछे होनेवाला विकल्पज्ञान " इसी समय मुझको स्पष्ट अनुभव है । पहिले पीछेके क्षणोंका स्पष्ट अनुभव नहीं है । इस प्रकार के विधि और निषेधको विषय करता हुआ नहीं उत्पन्न हुआ है। ऐसी दशामें उस विकल्पको केवल वर्तमान कालीन संवेदन अनुभव करनेकी व्यवस्था करा देनापन बनता नहीं है । बौद्धों के यहां प्रत्यक्षके द्वारा जाने हुए विषकोही निश्चय करनेवाला विकल्पज्ञान इष्ट किया है, प्रत्यक्षज्ञान विचार करनेवाला नहीं है । दूसरी बात यह है कि अप्रमाण ज्ञानसे प्रमाणं ज्ञानकी व्यवस्था करना भला क्या हो सकेगा ? पण्डितप• नेका निर्णय यदि मूर्ख करने लगे तब तो सबके इष्ट मनोरथ सिद्ध हो जावेंगे। तथा देखता हुआ भी
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