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________________ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके नांशेभ्योऽर्थान्तरं कश्चित्तत्वतोशीत्ययुक्तिकम् । तस्यैकस्य स्थविष्ठस्य स्फुटं दृष्टेस्तदंशवत् ॥७॥ बौद्ध जन कहते हैं कि अंशोंसे भिन्न पदार्थ कोई भी वास्तविकरूपसे अंशी नहीं है। यानी अन्य अंशोंसे रहित केवल अंशरूप अवयव ही पदार्थ हैं । क्षणिक परमाणुएं ही वास्तविक हैं, अवयवी कोई वस्तु नहीं है । अब आचार्य कहते हैं कि यह बौद्धोंका कहना युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि उस एक अवयवीरूप अधिक स्थूल अंशी ( अवयवी ) का स्पष्टरूपसे प्रत्यक्षज्ञान द्वारा दर्शन हो रहा है । जैसे कि प्रत्यक्षज्ञानसे उसके अंश दीख रहे हैं। भावार्थ-कपाल, तन्तु, आदि छोटे छोटे अनेक अवयवोंसे कथञ्चित् भिन्न एक स्थूल घट, पट, आदिक अवयवीका प्रत्यक्ष हो रहा है। __नान्तर्बहिवांशेभ्यो भिन्नोंशी कश्चित्तत्त्वतोस्ति यो हि प्रत्यक्षबुद्धावात्मानं न समर्पयति प्रत्यक्षतां च स्वीकरोति । सोयममूल्यदानक्रयीत्ययुक्तिकमेव, स्थविष्ठस्यैकस्य स्फुटं साक्षात्करणात् तद्व्यतिरेकेणांशानामेवाप्रतिभासनात् । तथा इमे परमाणवो नात्मनः प्रत्यक्षबुद्धौ स्वरूपं समर्पयन्ति प्रत्यक्षतां च स्वीकर्तुमुत्सहन्त इत्यमूल्यदानक्रयिणः । सौगतोंका मन्तव्य है कि ज्ञानपरमाणुरूप अन्तरंग और स्वलक्षण परमाणुरूप बहिरंग अंशोंसे भिन्न कोई अंशवान् स्थूल अवयवी पदार्थ वास्तविकरूपसे नहीं है जो कि अंशी प्रत्यक्षप्रमाणमें अपने स्वरूपको अर्पित नहीं करता है और अपने प्रत्यक्ष हो जानेको स्वीकार करना चाहता है । अतः जैन, नैयायिक, मीमांसक, आदिके द्वारा मान लिया गया वह यह अंशी मूल्य न देकर क्रय (खरीदना ) करनेवाला है । अर्थात् हम बौद्धोंके यहां तो ज्ञान साकार है। वस्तुभूत पदार्थ अपना आकार ज्ञानके लिये अर्पण करते हैं और ज्ञान उनका प्रत्यक्ष कर लेता है । जैसे कि जो पदार्थ दर्पणके लिये अपना आकार दे देता है तो दर्पण उनका प्रतिबिम्ब करनारूप प्रतिफल दे देता है । जब कि आकाशका फूल कोई पदार्थ ही नहीं है तो दर्पणके लिये क्या दिया जाय और उससे क्या लिया जाय । ऐसी दशामें आकाशका फूल आकारको विना दिये ही अपना प्रतिबिम्ब चाहे तो यह अन्याय है । जब कि अवयवी कोई पदार्थ नहीं है तो वह अपने स्वरूपको प्रत्यक्ष ज्ञानके लिये अर्पण नहीं कर सकता है। तभी तो उसका प्रत्यक्ष नहीं होता है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना अयुक्त ही है। क्योंकि अधिक मोटे एक अर्थका स्पष्टरूपस प्रत्यक्ष किया जा रहा है। प्रत्युत उस अवयवीसे सर्वथा भिन्न माने गये अंशोंका ही दीखना नहीं हो रहा है । तिस प्रकारसे आप बौद्धोंके यहां मानी गयीं परमाणुये ही प्रत्यक्ष ज्ञानमें अपने स्वरूपको भले प्रकार अर्पण नहीं करती हैं। किन्तु अपना प्रत्यक्ष हो जानेपनको स्वीकार करनेके लिये उत्साहित हो रही
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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