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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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उतने अंशको पूरा समुद्र मान लिया जावेगा तो शेष बचे हुए समुद्रके अंशोंको भी सरोवर तालाब आदिके समान समुद्ररहितपनेका प्रसंग हो जावेगा तो फिर अन्यत्र कहीं भी समुद्रपनेका व्यवहार न होगा । चालनी न्यायसे बंगालको खाडी तो कालेसमुद्रकी अपेक्षा असमुद्र है और कालासागर बंगालकी खाडीकी अपेक्षासे असमुद्र हो जावेगा । अथवा दूसरा दोष यह है कि समुद्रके एक एक अंशको यदि पूरा समुद्रका कह दोगे तो एक एक टुकडोंके बहुतसे समुद्र हो जायेंगे, ऐसी दशामें तो बहुत लम्बे, चौडे एक अवयवी समुद्रका ज्ञान भला कहां क्या होगा ? इसको तो विचारो ! ..
यथैव हि समुद्रांशस्य समुद्रत्वे शेषसमुद्रांशानामसमुद्रत्वप्रसंगात् समुद्रबहुत्वापत्तिर्वा तेषामपि प्रत्येकं समुद्रत्वात् । तस्यासमुद्रत्वे वा शेषसमुद्रांशानामप्यसमुद्रत्वात् कचिदपि समुद्रव्यवहारायोगात् । समुद्रांशः स एवोच्यते । तथा स्वार्थैकदेशो नयस्य न वस्तु स्वार्थकदेशान्तराणामवस्तुत्वमसंगात्, वस्तुबहुत्वानुषक्तेर्वा । नाप्यवस्तु शेषांशानामप्यवस्तुत्वेन कचिदपि वस्तुव्यवस्थानुपपत्तेः । किं तर्हि ? वस्त्वंश एवासौ तादृप्रतीतेर्बाधकाभावात् ।
___जैसे ही समुद्रके अंशको पूर्णसमुद्र मान लेनेपर बचे हुए समुद्रके अंशोंको असमुद्रपनेका प्रसंग होता है । अथवा एक एक अंशको समुद्रपना हो जानेसे बहुतसे समुद्र हो जानेकी आपत्ति होवेगी। क्योंकि वे सम्पूर्ण एक एक अंश भी न्यारे न्यारे समुद्र बन जावेंगे । यदि उस समुद्र के अंशको समुद्रपना न माना जावेगा तो समुद्रके बचे हुए अंशोंको भी समुद्रपना न होगा। तब तो कहीं भी समुद्रपनेका व्यवहार न होने पावेगा । अतः परिशेषमें यही निर्णय करना पडेगा कि वह समुद्रका अंश न तो समुद्र है और न असमुद्र है, किन्तु वह समुद्रका एकदेश अंश ही कहा जाता है । तिसी प्रकार नयका गोचर स्व और अर्थका एक देश भी पूरा वस्तु नहीं है। अन्यथा स्वार्थके बचे हुए अन्य कतिपय एकदेशोंको अवस्तुपनेका प्रसंग हो जावेगा । अथवा वस्तुके एक एक अंशको यदि पूरा एक एक वस्तु मान लिया जावेगा तो एक वस्तुमें बहुतसी वस्तुएं हो जानेकी आपत्ति हो जावेगी। तथा नयसे जान लिया गया स्वार्थका अंश अवस्तु भी नहीं है, क्योंकि उस प्रकृत अंशके समान बचे हुए अन्य अंशोंको भी अवस्तुपना हो जानेसे कहीं भी वस्तुकी व्यवस्था सिद्ध न हो सकेगी। तब तो फिर नयके द्वारा जाना गया स्वार्थाश क्या है ? आप जैन ही बतलाइये । इसका उत्तर यह है कि वह वस्तुका अंश ही है, तैसी प्रतीति होनेका कोई बाधक प्रमाण नहीं है । अकेले हाथको हम शरीर भी नहीं कह सकते हैं और अशरीर भी नहीं कहते हैं । किन्तु हाथ शरीरका एक देश है । उक्त पंक्तियोंमें यथाका अन्वय दूरवर्ती तथाके साथ कर देना । अभीष्ट पदार्थोंमें त्रुटि आ जानेपर प्रसंगदोष दिया जाता है । और विवक्षित पदार्थसे बढ जानेपर आपत्ति दोष दिया जाता है। जैसे कि दस और दस मिलाकर उन्नीस कह देनेसे प्रसंगदोष कहा जावेगा और इक्कीस कह देनेसे आपत्ति हो जावेगी । वही यहां असमुद्रपना और बहुसमुद्रपनाके समान अवस्तुपना और अनेक वस्तुपनेमें लगा लेना चाहिये । ,