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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके यहां कोई कहता है कि नयज्ञान प्रमाणरूप ही है। क्योंकि वह नय स्वयं अपना और अर्थका निर्णय करानेवाला है, जैसे कि जैनोंसे इष्ट किया गया प्रमाण प्रमाण ही है । अथवा यदि अपने और अर्थको जाननेवाला ज्ञान भी प्रमाण न होकर नय मान लिया जावेगा तो इष्ट प्रमाणको भी नय मानलो ! इस प्रकार सिद्धान्तसे विपरीत नियम हो जानेका प्रसंग हो जावेगा । तिस कारण प्रमाण और नयमें कोई भेद नहीं है जिससे कि प्रमाणको पूज्यपनेका और नयोंको अपूज्यपनेका विचार किया जाय । अर्थात् प्रमाणके समान नय भी पूज्य है । और अल्पस्वरवाला तो है ही, अतः सूत्रमें नय शब्दका पहिले प्रयोग करना होना चाहिये । इस प्रकार कोई अपनी पूर्व शंकाको दृढ़ करता हुआ कह रहा है। आचार्य बोलते हैं कि उसका वह कथन प्रशस्त नहीं हैं। क्योंकि अपना और अर्थका एकदेशसे निर्णय करना नयका लक्षण है । अतः पूर्णरूपसे अपना और अर्थका निश्चय करानेवाला हेतु असिद्ध है। यानी नयरूप पक्षमें हेतु नहीं रहता है । अतः किसीका उक्त सिद्धत्वाभास है । ३२२ स्वार्थीशस्यापि वस्तुत्वे तत्परिच्छेदे छेदलक्षणत्वात्प्रमाणस्य स न चेद्वस्तु तद्विषयो मिथ्याज्ञानमेव स्यात्तस्यावस्तुविषयत्वलक्षणत्वादिति चोद्यमसदेव । कुतः १ अब पुनः किसीका कुतर्क है कि नयके द्वारा जाने गये स्वांश और अर्थांशको भी यदि वस्तुभूत माना जावेगा, तब तो उनको जान लेनेपर वस्तुका ग्रहण कर लेनेवाला हो जानेसे नयज्ञान भी प्रमाण बन बैठेगा । प्रमाणका लक्षण वस्तुको जानना है । यदि नयसे जाने गये स्व और अर्थके अंशको वस्तु न माना जावेगा तब तो उस अवस्तुको विषय करनेवाला नयज्ञान मिथ्याज्ञान ही हो जावेगा। क्योंकि अवस्तुको विषय करना उस मिथ्याज्ञानका लक्षण है । विद्वान् ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकार किसीका कटाक्ष करना बहुत ही बुरा है। क्योंकि नाऽयं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥ ५ ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्यासमुद्रता । समुद्रबहुत्वं वा स्यात्तच्चेत्कास्तु समुद्रवित् ॥ ६ ॥ जिस कारण से कि नयद्वारा विषय किया गया वस्तुका अंश न तो पूरा वस्तु है और वस्तुसे सर्वथा पृथक् अवस्तु भी नहीं कहा जाता है, किन्तु वस्तुका एक देश है । जैसे कि समुद्रका एक अंश ( बङ्गालकी खाडी आदि ) या खण्ड विचारा पूर्णसमुद्र नहीं है और घट या नदी, सरोवर के समान वह असमुद्र भी नहीं है, किन्तु वह समुद्रका एक अंश कहा जाता है । यदि समुद्रके केवल
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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