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तत्वार्थचिन्तामणिः
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हैं, इस प्रकार तुम्हारी अंतरंग, बहिरंग, परमाणुयें ही विना मूल्य देकर सौदा लेनेवाली हुयीं हमारा अवयवी नहीं । भावार्थ-घट, पुस्तक, आत्मा, हाथी, घोडा आदि अवयवियोंका स्पष्ट प्रतिभास हो जाता है । ये विषयता ( स्वनिष्ठविषयतानिरूपित विषयिता ) सम्बन्धसे ज्ञानमें रह जाते हैं। दर्पणके समान ज्ञानमें पदार्थीका आकार पडता है । इस बातका खंडन कर दिया गया है। यदि ज्ञानमें अर्थीका आकार माना जावेगा तो सर्वज्ञको भूत, भविष्यत् पदार्थोका ज्ञान न हो सकेगा। क्योंकि जब वे वर्तमानकालमें हैं ही नहीं, तो वे ज्ञानमें अपना आकार कैसे डाल सकेंगे ? तथा संसारी जीवोंके नष्ट वस्तुका स्मरणज्ञान भी न हो सकेगा। अतः ज्ञान साकार है इसका अर्थ यह है कि आत्माके सम्पूर्ण गुणोंमें एक ज्ञान गुण ही विकल्पस्वरूप है । ज्ञान ही स्वयंको अनुभव करता है । दूसरेके प्रति समझाया जा सकता है इत्यादि प्रकारके उल्लेख ज्ञानमें ही होते हैं । सुख, इच्छा आदिमें ज्ञानसे अभिन्न होनेके कारण भले ही चैतन्यपनेकी स्वसंवित्ति हो जाय, किन्तु उक्त कार्योंमें ज्ञानको ही स्वतन्त्रता प्राप्त है । अभिप्राय यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाणसे स्थूल अवयवीका स्पष्टरूपसे दर्शन हो रहा है । बौद्धोंसे मानी गयी क्षणिक, निःस्वभाव, निरंश, परमाणुओंका ज्ञान संसारी जीवोंको आजतक कभी नहीं हुआ है । अतः मूल्य नहीं देकर विक्रेतासे क्रय कर लेनारूप दोष परमाणुओंमें है। अवयवीमें नहीं। ज्ञेयसे नहीं किन्तु स्वकारणवश अपने ज्ञानका आवरण करनेवाले कर्मोके क्षयोपशम वरूप ही मानमूल्य प्राप्त हो जानेपर आत्मा उन वास्तविक अवयवी आदि पदार्थोको जान लेता है। यही सालङ्कार वचन अच्छा है ।
कल्पनारोपितोंशी चेत् स न स्यात् कल्पनान्तरे । . तस्य नार्थक्रियाशक्तिर्न स्पष्टज्ञानवेद्यता ॥ ८॥
यदि बौद्ध यों कहें कि अंशी वास्तविक पदार्थ नहीं है कल्पित है। जैसे कि छोटे छोटे अनेक धान्योंका समुदायरूप धान्यराशिए लम्बी चौडी मान ली गयी है, किन्तु वह राशि छोटे छोटे धान्योंसे अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं है । तिसी प्रकार छोटे छोटे परमाणुओंसे अतिरिक्त अवययी कोई पदार्थ नहीं है, कोरी कल्पनाओंसे गढ लिया गया आरोप है। तमारा रोगवाला मनुष्य घाममेंसे आकर छाया या अन्धेरेमें बडे बडे चमकीले पिण्डोंको देखता है, किन्तु हाथ लगानेपर वे कुछ नहीं प्रतीत होते हैं। पूर्ववासनाओंसे केवल भ्रम हो जाता है। बौद्धोंके ऐसा कहनेपर तो हम जैन यह प्रतिवाद करते हैं कि यदि अवयवी पदार्थ कल्पित होता तो दूसरी कल्पनाओंके उत्पन्न हो जानेपर वह नहीं रहने पाता। किन्तु हृदयमें अनेक कल्पनाओंके उठते रहनेपर भी श्रीमान् अवयवी वहीं बैठे रहते हैं, दूर नहीं भाग जाते हैं, ओझल भी नहीं होते हैं, कल्पना किये हुए पदार्थोंमें तो ऐसा नहीं होता है। अतः अवयवी कल्पित नहीं है किन्तु वस्तुभूत है। दूसरी बात यह है कि कल्पित किया गया वह अवयवी अर्थक्रियाओंको नहीं कर सकता है । झूठ मूठके ।