SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २९७ विषय हो रहा पदार्थ ही मुख्य है, निश्चय स्वरूप विकल्पज्ञानसे जाने गये सत्त्व आदिक तो सब कल्पितधर्म हैं, यह बौद्धों का कहना युक्तिशून्य है । क्योंकि ऐसा मानने पर परमार्थरूपसे पदार्थो को असत्पने, अक्षणिकपने आदिका प्रसंग हो जावेगा, यानी बौद्धोंके माने गये पदार्थ सत् और क्षणिक न हो सकेंगे । यह अनिष्टापत्ति हुयी । सकलधर्मनैरात्म्योपगमाददोषोऽयमिति चेत् कथमेवं धर्मी ताचिकः ? सोsपि कल्पित एवेति चेत् किं पुनरकल्पितम् ? स्पष्टमवभासनं स्वलक्षणमिति चेत् नैकन्दौ द्वित्वस्याकल्पितत्वप्रसंगात् । यदि बौद्ध यों कहें कि हम तो वास्तविक तत्त्वमें सम्पूर्ण धर्मोका निरात्मकपना (निषेध ) स्वीकार करते हैं, अर्थात् हमारे पदार्थोंमें क्षणिकत्व, सत्त्व, धर्म भले ही न रहो । कोई क्षति नहीं । हमारी ओर से सभी धर्म मिट जावें, सो ही अच्छा है । हम तो पदार्थोंके स्वभावरहितपनेरूप नैरात्म्य भावनाओंसे ही मोक्ष प्राप्त करना इष्ट करते हैं । बौद्धोंके ऐसा कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि इस प्रकार आपका माना हुआ धर्मी भला वास्तविक कैसे होगा ? अर्थात् जब धर्म धर्मो धारण करनेवाला धर्मी वस्तुभूत कैसे हो सकता है ? जब कि अश्वविषाण ही नहीं है तो उसको धारण करनेवाला आधार कैसे माना जा सकता है । यहां बौद्ध यदि यों कहें कि वह धर्मी भी कल्पित ही हैं । मुख्य नहीं है, ऐसा कहने पर तो हम पूछेंगे कि फिर तुम बतलाओ कि तुम्हारे यहां अकल्पित पदार्थ क्या माना गया है ? किसीको मुख्य माने बिना गौणकी कल्पना होती नहीं । यदि तुम यों कहो कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के द्वारा स्पष्टरूप से प्रकाशित हो रहा स्वलक्षण पदार्थ ही वास्तविक है, यह तो न कहना, क्योंकि जिसका स्पष्ट प्रतिभास होता है, वह वास्तविक है । ऐसा नियम करनेसे तो अंगुली लगाकर आंखको कुछ मीचने पर नेत्रजन्य स्पष्ट ज्ञान द्वारा एक चन्द्रमामें ज्ञात हुए दोपनेको भी अकल्पितपनेका प्रसंग होगा, यानी एक ही चन्द्रमा स्पष्ट दीखनेके कारण वास्तविक दो हो जायेंगे । स्वप्न में भी अनेक पदार्थ (पष्ट जाने जाते हैं, किन्तु वे मुख्य या वास्तविक नहीं । यदि पुनरबाधितस्पष्टसंवेदनवेद्यत्वात्स्वलक्षणं परमार्थसत् नैकन्दौ द्वित्वादिबाधितत्वादिति मन्यसे तदा कथमबाधितविकल्पाध्यवसीयमानस्य धर्मस्य धर्मिणो वा परमासच्वं निराकुरुषे । इस प्रसंग निवारणार्थ यदि फिर तुम बौद्ध यह मानोगे कि बाधारहित स्पष्ट संवेदन के द्वारा जानने योग्य होने के कारण स्वलक्षण तो वास्तविक सत्पदार्थ है, किन्तु एक चन्द्रमामें दोपना, तीनपना आदि वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि वे धर्म उत्तरकालमें हुए बाधक प्रमाणोंसे बाधित हो जाते हैं । स्वप्नमें हुआ ज्ञान भी बाधित है। अब आचार्य कहते हैं कि तब तो आपका नियम बहुत अच्छा है । अब तुम पक्षपात रहित होकर विचारोगे तो स्वलक्षणके समान उसी प्रकार बाधारहित विकल्पज्ञानके 38
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy