________________
तत्वार्थ लोकवार्तिके
है । जैन - सिद्धान्त अनुसार तो दूसरे कार्यका उत्पाद हो जाना ही हेतुका ध्वंस है । घटका ध्वंस कपालका उत्पादरूप है । आत्माकी कैवल्य अवस्था हो जाना या कर्मद्रव्यकी कर्मपनेसे रहित पुद्गल पर्याय हो जाना ही कर्मोंका ध्वंस है । श्रीसमन्तभद्राचार्यने कहा है कि " कार्योत्पादः क्षयो हेतोः " उपादान कारणका क्षय कार्यका उत्पाद होनारूप है । इस कारण विरोधियोंसे अभिन्न होता हुआ भी वह विरोध किसी कारणवश भिन्न सरीखा ही व्यवहारमें कहा जाता है । जैसे कि शीत उष्णका विरोध है । इस प्रकार जो कहा जावेगा तब भी नाम, स्थापना, आदिक निक्षेपक किसी एक पदार्थ में परस्पर विरोधवाले न हो सकेंगे, क्योंकि वे नाम आदि एक समय ही एक पदार्थ में दो, तीन, चार सकुशल हो रहेपनसे अच्छे निश्चित कर लिये गये हैं ।
२९६
न हि द्रव्यस्य प्रबन्धेन वर्तमानस्य नामस्थापनाभावानामन्यतमस्यापि तत्रोद्भवे क्षयोऽनुभूयते नानो वा स्थापनायाः भावस्य वा तथा वर्तमानस्य तदितरप्रवृत्तौ येन विरोधो गम्येत । तथानुभवाभावेऽपि तद्विरोधकल्पनायां न किञ्चित्केनचिदविरुद्धं सिद्धयेत् ।
बहुत कालसे पर्यायप्रवाहरूप रचनाविशेष करके वर्त रहे द्रव्यके होते संते वहां नाम, स्थापना और भावोंमेंसे किसी भी एकके प्रकट हो जानेपर उस द्रव्यका क्षय होना नहीं जाना जाता है । अथवा नाम या स्थापना अथवा भावके पूर्ण कारण होते हुए तैसी प्रवृत्ति करते संते उनमें से किसी अन्यकी प्रवृत्ति होनेपर उनका नाश होना नहीं देखा जाता है, जिससे कि नाम आदिकका परस्पर में विरोध होना समझ लिया जाय । यदि तिस प्रकार अनुभव नहीं होते हुए भी उन नाम आदिक में विरोधक कल्पना करोगे तब तो कोई भी पदार्थ किसी भी पदार्थसे अविरुद्ध सिद्ध न होगा । अर्थात् नाशको न करनेवाला भी विरोधी माना जावेगा, तब तो एक शरीरमें स्थित हो रहे अनेक अङ्गोंका अथवा पञ्चाङ्गुलमें अंगुलियोंका या एकत्र बैठे हुए अनेक विद्वानों का भी विरोध न जावेगा । यहांतक अव्यवस्था हो जावेगी कि सबका सबसे विरोध हो जावेगा, जो कि इष्ट नहीं है ।
न च कल्पित एव विरोधः सर्वत्र तस्य वस्तुधर्मत्वेनाध्यवसीयमानत्वात् सच्चादिवत् । सच्चादयोऽपि सत्त्वेनाध्यवसीयमानाः कल्पिता एवेत्ययुक्तं तत्त्वतोऽर्थस्यासत्वादिप्रसंगात् ।
दूसरी बात यह है कि बौद्ध जन विरोधको सर्वथा कल्पित ही कहें, सो भी ठीक नहीं, क्योंकि सभी स्थलोंपर वह विरोध वस्तुका धर्म होकर निर्णीत किया जा रहा है । जैसे कि सत्त्व, क्षणिकत्त्व, अविसंवादकत्व, आदि वस्तुओंके मुख्य धर्म हैं । यदि बौद्ध यों कहें कि सत्व आदि धर्म भी विकल्पज्ञान द्वारा सत्पनेकरके निश्चित किये हुए हैं, अतः वे कल्पित ही है । वस्तुतः सत्पना, स्वलक्षणपना, क्षणिकपना आदिकी सभी कल्पनाओंसे रहित और निर्विकल्पक प्रत्यक्षका