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________________ २९८ तत्त्वार्थलोकवार्तिके द्वारा निर्णीत किये जा रहे धर्म और धर्मीका परमार्थरूपसे सत्पना भला कैसे निराकृत करोगे ? यानी निर्बाध विकल्पज्ञानसे जाने गये धर्म और धर्मीको भी मुख्य वस्तु मान लो । हां ! सबाध ज्ञानोंसे जान लिये गये कल्पित पदार्थों को न मानना । विकल्पाध्यवसितस्य सर्वस्याबाधितत्वासम्भवान वस्तुसत्त्वमिति चेत्, कुतस्तस्य तदसम्भवनिश्चयः । विवादापनो धर्मादिर्नाबाधितो विकल्पाध्यवसितत्वात् मनोराज्यादिवदित्यनुमानादिति चेत्, स तबबाधितत्वाभावस्तस्यानुमान विकल्पेनाध्यवसितः परमार्थसन्नपरमार्थसन् वा ? प्रथमपक्षे तेनैव हेतोर्व्यभिचारः, पक्षान्तरे तत्त्वतस्तस्याषाधितत्वं अबाधितत्वाभावस्याभावे तदबाधितत्वविधानात् । यदि बौद्ध यों कहें कि झूठे विकल्पज्ञान द्वारा निर्णीत किये गये सम्पूर्ण धर्म, धर्मी, आदि पदार्थीको अबाधितपना असम्भव है, यानी सभी विकल्पज्ञानोंसे जाने गये पदार्थोंमें बाधा उपस्थित हो ही जाती है अतः वे वास्तविक सत्पदार्थ नहीं हैं । ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि तुमने उनको अबाधितपनेके असम्भवका निश्चय कैसे किया बतलाओ ? अब यहां बौद्ध अनुमान प्रयोग रचते हैं कि विवादरूप क्रूर ग्रहसे ग्रसित हो रहे धर्म, धर्मी आदिक (पक्ष ) अबाधित नहीं हैं ( साध्य ) विकल्पज्ञानसे निश्चित होनेके कारण ( हेतु ) जैसे कि मनमें राज्य प्राप्त कर लेना या स्वप्नमें धन प्राप्त कर लेना आदिक विषय विचारे कल्पनाओंसे ज्ञेय होनेके कारण परमार्थभूत नहीं हैं । इस अनुमानसे यदि अबाधितपनेका निषेध सिद्ध करोगे तो हम आपके ऊपर विकल्प उठाते हैं कि उस धर्म, धर्मी, आदिकको अबाधितपनेका अभाव जो कि आपने अनुमानरूप विकल्पज्ञानसे निर्णीत किया है वह वास्तविक सत् है या वस्तुभूत नहीं है ? बताओ । पहिला पक्ष लेनेपर यानी अबाधितत्वाभाव वास्तविक पदार्थ है तब तो तिस वास्तविक अबाधितत्वाभाव पदार्थसे ही तुम्हारे हेतुका व्यभिचार हुआ अर्थात् अबाधितत्त्वाभावमें विकल्पज्ञानसे निर्णीत किया गयापन हेतु रह गया और अबाधितत्वाभावरूप साध्य न रहा । क्योंकि आपने इसको अबाधित यानी वास्तविक मान लिया है। दूसरा पक्ष ग्रहण करनेपर यानी अबाधितत्वाभाव पदार्थ वास्तविक नहीं है तब तो वास्तविकरूपसे उसको अबाधितपना आगया, यानी अबाधितत्त्वाभाव जब वास्तविक नहीं रहा तो धर्म, धर्मी आदिमें अबाधितपना ही वास्तविक रहा । अबाधितपनेके अभावका अभाव हो जानेपर उसके अबाधितपनेका ठीक विधान हो जाता है । घटाभावके अभाव कर देनेपर घटके अस्तित्वका विधान हो जाता है । बात यह है कि निर्णय किये विना बौद्धोंका भी कार्य नहीं चल सकता है। बाधारहित निर्णयज्ञानके विषयको वास्तविक मानना उनको आवश्यक पडेगा, अन्यथा कोई गति नहीं है। न चाविचारसिद्धयोधर्मिधर्मयोरवाधितत्वाभावः प्रमाणसिद्धपबाधितत्वं विरुणद्धि संवृत्तिसिद्धेन परमार्थसिद्धस्य बाधनानिष्टेः । तदिष्टौ वा स्वेष्टसिद्धरयोगात् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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