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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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संज्ञेय है । अनेक भक्तिभावोंसे भगवज्जिनेन्द्रदेवकी पूजा करनेवाला सम्यग्दृष्टि जीव परिणामी है, और मृत्युके अनन्तर स्वर्गो में इन्द्र हो जाना परिणाम है, इत्यादि प्रकारसे नाम आदिक और न्यस्यमान पदार्थों का कथञ्चित् भेद हो रहा है ।
नामादयो विशेषा जीवाद्यर्थात् कथञ्चिद्भिन्ना निक्षिप्यमाणनिक्षेपकभावात् सामान्यविशेषभावात् प्रत्ययादिभेदाच्च । ततस्तेषामभेदे तदनुपपत्तेरिति । घटाद्रूपादीनामिव प्रतीतिसिद्धत्वान्नामादीनां न्यस्यमानार्थाद्भेदेन तस्य तैर्न्यासो युक्त एव ।
जीव आदिक पदार्थोंसे नाम, स्थापना आदिक विशेष परिणाम कथञ्चित् भिन्न हैं, क्योंकि जीव आदिक पदार्थ निक्षेपित किये जा रहे कर्म हैं और नाम आदिक निक्षेप करनेवाले करण हैं । तथा जीव आदिक पदार्थ सामान्य हैं और नाम आदिक निक्षेप विशेष है । अतः निक्षेप्य निक्षेपकभाव और सामान्यविशेषभावसे पदार्थ और नाम आदिकोंका भेद है । इनका ज्ञान भी न्यारा न्यारा है । वाचक शब्द, प्रयोजन, संख्या, कारण आदिके भेदोंसे भी इनमें भेद है । यदि उन जीव आदिक अर्थोंसे उन नाम आदिकोंका अभेद माना जावेगा तो उक्त प्रकार वे निक्षेप्य, निक्षेपक, प्रयोजन, ज्ञान, आदि भेद नहीं बन सकेंगे । यों घटसे रूप आदिकोंके समान निक्षेप किये गये अर्थसे नाम आदिकोंकी भेदरूपसे प्रतीति होना सिद्ध है । अतः नाम आदिकोंका निक्षेपित अर्थसे भेद होने के कारण उसका उन नाम आदिकोंसे न्यास होना युक्त ही है ।
न हि नामेन्द्रः स्थापनेन्द्रो द्रव्येन्द्रो वा भावेन्द्रादभिन्न एव प्रतीयते येन नामेन्द्रादिविशेषाणां तद्वतो भेदो न स्यात् ।
नामसे निक्षेप किया गया इन्द्र नामक पुरुष और स्थापनासे निक्षेप किया गया पाषाणका इन्द्र तथा भविष्य में इन्द्र होनेवाला पूजक मनुष्य या कुछ पल्योंकी आयुको भोगचुका स्वर्गका द्रव्यनिक्षेप से होनेवाला भावी इन्द्र ये सब पदार्थ इस वर्तमान कालके भावरूप इन्द्रसे अभिन्न ही प्रतीत हो रहे हैं, यह नहीं मानना । जिससे कि नाम इन्द्र, स्थापना इन्द्र आदि विशेष परिणामोंका उनसे सहित होरहे निक्षिप्यमाणपदार्थोंसे भेद न होता, अर्थात् निक्षिप्य और निक्षेपकोंमें कथञ्चित् भेद हैं।
नन्वेवं नामादीनां परस्परपरिहारण स्थितत्वादेकत्रार्थेऽवस्थानं न स्यात् विरोधात् शीतोष्णस्पर्शवत्, सत्त्वासत्त्ववद्वेति चेन्न, असिद्धत्वाद्विरोधस्य नामादीनामेकत्र दर्शनात् विरोधस्यादर्शनसाध्यत्वात् । परमैश्वर्यमनुभवत्कश्चिदात्मा हि भावेंद्र: सांप्रतिकेन्द्रत्वपर्यायाविष्टत्वात्। स एवानागतमिंद्रत्वपर्यायं प्रति गृहीताभिमुख्यत्वाद्द्रव्येन्द्रः, स एवेन्द्रान्तरत्वेन व्यवस्थाप्यमानः स्थापनेन्द्रः, स एवेन्द्रान्तरनाम्नाभिधीयमानो नामेन्द्र इत्येकत्रात्मनि दृश्यमानानां कथमिह विरोधो नाम अतिप्रसंगात् ।
यहां आक्षेप सहित शंका है कि इस प्रकार निक्षेप्य और निक्षेपकों में भेद होनेपर तो नाम, स्थापना आदिकों का परस्परमें भी एक दूसरेका निराकरण करते हुए भेद होना स्थित होगा तब तो
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