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________________ स्वार्थ लोकवार्तिके हैं । बौद्ध कापिल, आदिके सर्वथा एकान्त पक्षके अनुसार गढ लिये गये पदार्थोंकी प्रतीति नहीं हो रही है । अनेक धर्मोसे जटिल हो रही वस्तुकी यथावत् परीक्षणा करना स्याद्वाद सिद्धान्तके वेत्ता स्याद्वादीकी नयचऋपरिपाटी से ही साध्य कार्य है । अन्य दार्शनिकों को यह मार्ग दुर्गम है । तभी तो वे परस्परमें अनेक प्रकारके उपद्रव कर रहे हैं। 1 २८८ ननु नामादयः केऽन्ये न्यस्यमानार्थरूपतः । यैर्न्यासोऽस्तु पदार्थानामिति केप्यनुयुञ्जते ॥ ७९ ॥ तेभ्योपि भेदरूपेण कथञ्चिदवसायतः । नामादीनां पदार्थेभ्यः प्रायशो दत्तमुत्तरम् ॥ ८० ॥ नामेन्द्रादिः पृथक्तावद्भावेन्द्रादेः प्रतीयते । स्थापनेन्द्रादिरप्येवं द्रव्येन्द्रादिश्च तत्त्वतः ॥ ८१ ॥ तद्भेदश्च पदार्थेभ्यः कथञ्चिद्घटरूपवत् । स्थाप्यस्थापकभावादेरन्यथानुपपत्तितः ॥ ८२ ॥ यहां शंका है कि निक्षेप किये गये जीव आदि पदार्थोंके स्वरूपसे भिन्न नाम आदिक और क्या पदार्थ हैं ? जिनसे कि सम्यग्दर्शन आदि पदार्थोंका न्यास होना माना जावे । अर्थात् नाम आदिकोंसे जीव आदि पदार्थोंका न्यास होता है, इस वाक्यमें पडे हुए तीनों पदोंका न्यारा न्यारा अर्थ नहीं प्रतीत होता है, एक ही ढंग दीखता है । इस प्रकार कोई भी वादी जैनोंके ऊपर कटाक्ष कर रहे हैं। आचार्य समझाते हैं कि तिन वादियोंको हम प्रायः करके पहिले ही यह उत्तर दे चुके हैं कि नामनिक्षेप द्वारा व्यवहृत किये गये इन्द्र आदि पदार्थ निश्चय कर स्वर्गस्थ भावइन्द्र आदि पदार्थोंसे पृथग्भूत प्रतीत हो रहे हैं और इसी प्रकार, पाषाण, काष्ठ, आदि में थापे गये इन्द्र आदि भी सौधर्म आदि भाव इन्द्रोंसे न्यारे न्यारे जाने जा रहे हैं । तथा द्रव्यइन्द्र, द्रव्यराजा आदि भविष्य में परिणत होनेवाले पदार्थ भी वर्तमान सनत्कुमार आदि इन्द्रोंसे, या राजासे वस्तुतः विभिन्न हैं, तिस कारण पदार्थोंसे नाम आदिकका कथञ्चित् भेद इष्ट किया है और उन निक्षेपकोंसे निक्षेपका भी भेद माना है, तथा पदार्थोंसे भी नाम आदिका भेद है । जैसे घट और उसके रूपका कथञ्चित्भेद है । अन्यथा स्थाप्य स्थापकभाव, वर्तमान भविष्यभाव, परिणामी परिणामभाव आदिकी व्यवस्था न बन सकेगी । सर्वथा भेदपक्षमें उक्त भाव नहीं बन पाते हैं । अर्थात् पहिले स्वर्गका सौधर्म इन्द्र स्थाय है, निक्षेप करनेवाला स्थापक है, किसी पुरुषका इन्द्र यह नाम करना संज्ञा है और वह पुरुष 1
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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