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तत्वाचन्तामणिः
जीव आदि पदार्थों से उनका निक्षेप द्वारा गोचर होजानापनरूप न्यस्यमानता धर्म अभिन्नही है । इस प्रकार कहते हुये सांख्य आदि एकान्तवादी जन ही ऊधम मचा रहे हैं। किंतु फिर अनेकान्तवादियोंके यहां कोई टंटा नहीं है । क्योंकि उन स्याद्वादियोंके सिद्धान्तमें द्रव्यार्थिक नयकी प्रधानतासे उस न्यास और न्यस्यमान पदार्थका अभेद इष्ट किया है तथा पर्यायार्थिक नयकी प्रधानतासे उनका परस्परमें भेद माना गया है। तहां अभेदविवक्षा होनेपर तो पदार्थोका न्यास इस भेदप्रतिरूपक षष्ठी विभक्तिके प्रयोगकी योजना करना गौण पडता है, कारण कि पदार्थोसे अभिन्न हो रहे भी न्यासका भेद करके व्यवहार करते हुए तैसा कथन कर दिया गया है, जैसे कि आत्माका ज्ञान या स्तम्भका सार है । इसका हेतु यही है कि द्रव्यार्थिक नयसे उनका भेद निरूपण करना मुख्य नहीं है । क्योंकि वह द्रव्यार्थिक नय तो प्रधानरूपसे अभेदको विषय करता है ।
भेदविवक्षायां तु मुख्या सा, पर्यायार्थिकस्य भेदप्रधानत्वात् । न च तत्रानवस्था, न्यासस्यापि नामादिभियासोपगमात् ।
किंतु भेदकी विवक्षा होनेपर तो पदार्थोका न्यास है, यह वाचोयुक्ति मुख्य है । क्योंकि पर्यायार्थिक नय मुख्यरूपसे भेदको जानता है । जैसे सोनेका कंकण, चूनकी रोटी, चनेकी दाल ये वाक्य सुचारु हैं, तैसे ही पदार्थोका निक्षेप है यह पर्यायार्थिक नयका गोचर है। एक बात यह भी है कि उस भेदपक्षमें अनवस्थादोष नहीं आता है। क्योंकि न्यासको भी भिन्न पदार्थ मानकर उसका भी नाम स्थापना आदिसे न्यास होना यथासम्भव और आकांक्षा अनुसार स्वीकार कर लिया है। अर्थात् जीव पदार्थके समान न्यास भी स्वतन्त्र पदार्थ है। उसके भी नाम, स्थापना आदि किये जाते हैं । तार द्वारा विद्यत्शक्तिसे दौडाये गये गट् गर् गट आदि शब्दोंसे अंग्रेजी शब्दोंका ज्ञान हो जाता है । पीछे अंग्रेजी शब्दोंसे हिन्दी शब्दोंका परिज्ञान हो जाता है। उनसे भी अपभ्रंश शब्दोंकी प्रतीति होकर वाध्य अर्थोकी ज्ञप्ति हो जाती है।
नामजीवादयः स्थापनाजीवादयो द्रव्यजीवादयो भावजीवादयश्चेति जीवादिभेदानां प्रत्येकं नामादिभेदेन व्यवहारस्य प्रवृतेः परापरतत्पभेदानामनन्तत्वात् सर्वस्य वस्तुनोऽनतात्पकत्वेनैव प्रमाणतो विचार्यमाणस्य व्यवस्थितत्वात् सर्वथैकान्ते प्रतीत्यभावात् ।
नामजीव, नाममनुष्य आदिक और स्थापनाजीव स्थापनाइन्द्र आदिक तथा द्रव्यजीव द्रव्यराजा आदिक एवं भावजीव, भावज्ञान आदिक इस प्रकार जीव, अजीव आदिके प्रत्येक भेदोंका नाम, स्थापना आदि भेदों करके व्यवहार होना प्रवर्त रहा है। उन भेद प्रभेदोंके भी न्यारे नाम, स्थापना आदिकोंका पुनः नाम आदि निक्षेपोंसे व्यवहार हो रहा है । पदार्थोके पर अपर भेद और उनके भी अवान्तर प्रमेद अनन्त हैं । जिस श्रुतज्ञानी जीवकी जितनी अधिक शक्ति होगी उतना ही अधिक वस्तुके उदरमें प्रविष्ट होकर नाम आदिकोंके द्वारा वस्तुके अन्तस्तलपर पहुंच जाता है। सम्पूर्ण वस्तुएं अनन्त धर्मोसे तदात्मापने करके ही प्रमाणोंके द्वारा विचारी गयीं व्यवस्थित हो रही