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तत्वार्थलोकवार्तिक
भेदप्रभेदरूपेणानन्तत्वात्सर्ववस्तुनः । सद्भिर्विचार्यमाणस्य प्रमाणानान्यथा गतिः॥ ७८॥
हां ! पर्यार्थिक नयकी विवक्षासे उन न्यास और न्यासवाले पदार्थोंका भेद हो जानेपर पदाअॅका न्यास यह भेदगर्भित वचनप्रयोग मुख्य ही माना गया है । जैसे कि वृक्षकी शाखाएं हैं, ऐसी दशामें भिन्न पडे हुए न्यास पदार्थका भी नाम आदि निक्षेपों करके पुनः न्यास करना इष्ट है । अतः मूलको रक्षित रखनेवाला होनेके कारण अनवस्थादोष नहीं है, किन्तु आम्नायको पुष्ट करनेवाला होनेसे गुण है । भावार्थ-आगको कहनेवाला अग्निशब्द है । व्याकरणमें इकारान्त अग्नि शदकी सुसंज्ञा है । द्वन्द्वसमासमें सुसंज्ञक शब्दोंका पूर्वनिपात हो जाता है । यह नामका नामनिक्षेप है । भौंराके वाचक द्विरेफ शद्बसे दो रकारवाला भ्रमर शब्द पकडा जाता है। रामचन्द्र, प्रेमचन्द्र नहीं । तब भ्रमर शबसे भौंरा जाना जाता है । इस नामनिक्षेपके समान स्थापनाकी स्थापना भी देखी जाती है। एक विशिष्ट व्यक्तिमें सभापतिपनेकी स्थापना करा ली जाती है । सभापतिके अनुपस्थित होनेपर उपसभापतिमें उस सभापतिकी स्थापना करली जाती है। उसकी भी स्थापना चित्र (तस्बीर) में करली जाती है । ऋण लेनेवाला पुरुष राजकीय पत्र ( स्टाम्प ) पर हस्ताक्षर करता है। यहां भी आत्मा, शरीर, हाथ और पत्रपर लिखे गये अक्षरोंमें स्थापित स्थापना है। तथा चिरभविष्यपर्यायके उदरमें शीघ्र भविष्य पर्यायोंकी उत्प्रेक्षा कर द्रव्यनिक्षेपका भी द्रव्यनिक्षेप बन जाता है और स्थूल वर्तमानमें सूक्ष्मवर्तमानपर्यायोंके तारतम्यसे भावनिक्षेप भी न्यस्यमान हो जाता है । सम्पूर्ण वस्तुएं भेद और प्रभेदरूप करके अनन्त है। वे प्रमाणोंके द्वारा सज्जन पुरुषों करके विचारली गयीं हैं, उनमें अनेक स्वभाव हैं । देवदत्तने एक रुपया करुणासे जिनदत्तको दिया, जिनदत्तने अनुप्रहके लिये वही रुपया इन्द्रदत्तको दिया । इस प्रकार उसी रुपयेके दानसे दस बीस व्यक्ति पुण्यशाली बन सकते हैं, किन्तु देवदत्तने एक रुपयेका बजाजसे कपडा मोल लिया और बजाजने सर्राफसे चांदी ली, सर्राफने उसी रुपयेसे मोदीकी दुकान परसे गेहूं लिये, इस क्रयव्यवहारमें पुण्य नहीं है। किन्तु उपर्युक्त नैमित्तिक परिणामोंको बनानेवाले अनेक स्वभाव उस रुपयेमें विद्यमान हैं। अनेक विद्यार्थी क्रमसे एक ही शास्त्रके दानसे शास्त्रदर्शी बन जाते हैं । दूसरे गुरुओंसे पढे हुए विद्वान् अन्य छात्रोंको पढाते हैं । भिक्षामेंसे भी भिक्षा दी जा सकती है । अर्थात् प्रत्येक वस्तु अनन्तानन्त स्वभावोंको लिये हुए है। दूसरे प्रकारसे यानी सर्वथा एकान्तमतोंके अनुसार मानली गयी वस्तुकी प्रतीति नहीं हो रही है।
न्यस्यमानता पदार्थेभ्योऽनन्तरमेव चेत्येकान्तवादिन एवोपद्रवन्ते न पुनरनेकान्तवादिनस्तेषां द्रव्यार्थिकनयार्पणात्तदभेदस्य, पर्यायार्थार्पणाझेदस्येष्टत्वात् । तत्राभेदविवक्षायां पदार्थानां न्यास इति गौणी वाचोयुक्तिः पदार्येभ्योऽनन्यस्यापि न्यासस्य भेदेनोपचरितस्य तथा कथनात् । न हि द्रव्यार्थिकस्य तद्भेदो मुख्योऽस्ति तस्याभेदभधानत्वात् ।