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तत्वार्यकोकवार्तिके
ऐसी दशामें नाम आदिकोंका विरोध हो जानेके कारण एक पदार्थमें उनका स्थित रहना न बन सकेगा। जैसे कि शीतस्पर्श और उष्णस्पर्श अथवा सत्त्व और असत्त्वधर्म एक पदार्थमें युगपत् नहीं पाये जाते हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो न कहना । क्योंकि नाम आदिकोंका विरोध कहना असिद्ध है । कारण कि नहीं देखनेसे विरोध साध्य किया जाता है । अर्थात् योग्यता होते हुए भी एकके होने पर दूसरा कैसे भी वहां न दीखे तो उन दोनोंका परस्परमें विरोध मान लिया जाता है, किन्तु यहां एक पदार्थमें नाम, स्थापना, आदिक निक्षेप युगपत् होरहे देखे जाते हैं । अतः अनुपलम्भ प्रमाणसे साधने योग्य विरोध यहां कैसे भी नहीं है । जिस कारणसे कि सुधर्मा सभामें इदि धातुके अर्थ परमैश्वर्यको अनुभव कर रहा कोई आत्मा वर्तमानकालकी इन्द्र पर्यायसे घिरा हुआ होनेके कारण भावइन्द्र है । वही भावइन्द्र सौधर्म शचीपति भविष्यमें अनेक पल्योंतक भोगी जाने योग्य अपनी इन्द्रत्वपर्यायके प्रति अभिमुखताको ग्रहण करनेसे द्रव्यरूप इन्द्र है । अर्थात् जैसे कोई राजा वर्तमान राजसिंहासनपर आरूढ है और आगे भी कुछ वर्षोतक आरूढ रहेगा । अतः भविष्य राजापनकी अपेक्षासे वर्तमानका राजा द्रव्यनिक्षेप करके भी राजा है । तथा वही शचीपति अन्य भवनवासी या कल्पवासी देवोंके दूसरे वैरोचन, ईशान, आदि इन्द्रपनेसे विशेषतया स्थापना कर लिया जाय तो भाव इन्द्र ही स्थापना इन्द्र हो जाता है । एक राजामें दूसरे राजाकी स्थापना की जा सकती है, कोई क्षति नहीं । तथा वही सौधर्म इन्द्र ब्रह्म, आनत, आदि दूसरे इन्द्रोंके नामसे कहा गया संता नामइन्द्र भी हो जाता है । इस प्रकार भाव इन्द्ररूप एक ही आत्मामें नाम, स्थापना,
और द्रव्यनिक्षेप युगपत् पाये जाते हैं । इस प्रकार एक आत्मामें देखे जा रहे नाम आदिकोंका विरोध इस प्रकरणमें भला कैसे हो सकता है ? अतिप्रसंग दोष हो जावेगा । यानी देखे हुए पदार्थों में भी परस्पर विरोध मान लिया जावेगा तो माता पुत्र, रूप रस, आदि या ज्ञान, सुख, आदिका भी विरोध हो जावेगा। कहीं कहीं रूप रसका और ज्ञान सुख आदि गुणोंका परस्पर परिहार लक्षण विरोध माना है। किंतु वह केवल गुणभेदका पोषक है । विरोधका सिद्धान्त लक्षण यही
अच्छा है कि " एकत्र द्वयोः सहानवस्थानम् विरोधः " एक स्थानपर दो पदार्थोका साथ न रहना विरोध है । सहानवस्थान, परस्पर परिहारस्थिति, वध्यघातक इन तीन विरोधों से सहानवस्थान विरोधका ही शंकाकारने उत्थान किया था। गौ व्याघ्र या सर्प नकुल और वृक बकरी, बिल्ली मूसटा आदिका विरोध कहना भी उपचार है । दयालु मुनिके पास या समवसरणमें तथा आजकल भी अभ्यास करानेसे गौव्याघ्र आदि एक स्थानपर दीख सकते हैं । मन्त्र, तन्त्र, भय, अहिंसा आदिसे उनका साथ रहना अब भी बन जाता है । ठीक विरोध तो रूप और ज्ञान या चेतन तथा अचेतनपनेका है । दूसरी बात यह है कि विरोध भी एक धर्म है । भिन्न भिन्न विवक्षाओंसे विरोध भी धर्मी पडे रहें तो कोई बोझ नहीं बढता है । वस्तुका अंश होकर बना रहेगा।
तत एव न नामादीनां संकरो व्यतिकरो वा स्वरूपेणैव प्रतीतेः।