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________________ तत्त्वार्थचिन्तामाणः २६९ ___ नन्वनागतपरिणामविशेष प्रति गृहीताभिमुख्यं द्रव्यमिति द्रव्यलक्षणमयुक्तं, गुणपर्ययवद्र्व्यमिति तस्य मूत्रितत्वात्, तदागमविरोधादिति कश्चित्, सोऽपि सूत्रार्थानभिज्ञः। पर्ययवद्रव्यमिति हि सूत्रकारेण वदता त्रिकालगोचरानन्तक्रमभाविपरिणामाश्रयं द्रव्यमुक्तम् । तच्च यदानागतपरिणामविशेष प्रत्यभिमुखं तदा वर्तमानपर्यायाक्रान्तं परित्यक्तपूर्वपर्याय च निश्चीयतेऽन्यथानागतपरिणामाभिमुख्यानुपपत्तेः खरविषाणादिवत् । केवलं द्रव्यार्थप्रधानत्वेन वचनेऽनागतपरिणामाभिमुखमतीतपरिणामं वानपायि द्रव्यमिति निक्षेपप्रकरणे तथा द्रव्यलक्षणमुक्तम् । सूत्रकारेण तु परमतव्यवच्छेदेन प्रमाणार्पणाद्गुणपर्ययवद्र्व्यमिति सूत्रितं क्रमाक्रमानेकान्तस्य तथा व्यवस्थितेः। यहां कोई शंका कर रहा है कि आप जैनोंने अभी द्रव्यका यह लक्षण कहा कि भविष्यमें आनेवाले विशेष परिणामोंके प्रति अभिमुखपनेको ग्रहण करनेवाला द्रव्य है । इस प्रकार द्रव्यका लक्षण तो युक्त नहीं है क्योंकि श्रीउमास्वामी महाराजने उस द्रव्यके लक्षणका गुण और पर्याय वाला द्रव्य होता है, यह सूत्र कह दिया है। अतः श्रीविद्यानन्द आचार्यके लक्षणका उस आगमसे विरोध हो गया । इस प्रकार कहनेवाला वह कोई शंकाकार भी सूत्रके अर्थको नहीं समझ रहा है। देखिये ! पर्यायवाला द्रव्य होता है इस प्रकार कहनेवाले सूत्रकार उमास्वामी महाराजने तीनों कालमें क्रमसे होनेवाली अनन्त पर्यायोंका आश्रय हो रहा द्रव्य कहा है । वह द्रव्य जब भविष्यमें होनेवाले विशेषपरिणामके प्रति अभिमुख है तब वर्तमानकी पर्यायोंसे तो घिरा हुआ है और भूतकालकी पर्यायोंको छोड चुका है ऐसा निर्णीतरूपसे जाना जा रहा है। अन्यथा खरविषाण, गगनकुसुमके समान भविष्यपरिणामोंके प्रति अभिमुखपना न बन सकेगा । उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, तथा पूर्वस्वभावोंका त्याग, उत्तर स्वभावोंका ग्रहण, और स्थायी अंशोंसे ध्रुवपना, ये द्रव्यकी आत्मा हैं । भविष्यकी अभिमखता कह देनेसे भतको धारण कर चका और वर्तमान पर्यायोंको झेल रहा है.यह तो अनायास कह दिया गया समझ लेना चाहिये । केवल विशेष बात यह है कि नित्य द्रव्यरूप अर्थकी प्रधानतासे कथन करनेपर भविष्यमें आनेवाले परिणामोंकी ओर अभिमुख और अतीत परिणामोंको धारण कर चुका, तथा जो नष्ट नहीं होनेवाला ध्रुव पदार्थ है वह द्रव्य है । इस प्रकार भविष्यपरिणामकी अभिमुखताकी प्रधानतासे निक्षेपके प्रकरणमें तिस प्रकार यह द्रव्यका लक्षण श्रीविद्यानन्द आचार्यने कहा है । किन्तु सूत्रकारने तो पांचवें अध्यायमें अन्यमतिओंसे माने गये द्रव्यलक्षणका खण्डन करके प्रमाणदृष्टिकी अपेक्षा सहभावीगुण और क्रमभावी पर्यायोंवाला द्रव्य होता है, इस प्रकार सूत्र बनाया है। प्रमाणदृष्टिसे तिस ही प्रकार द्रव्यका लक्षण करनेपर अक्रमसे होनेवाले अनेकान्त और क्रमसे होनेवाले अनेकान्तकी व्यवस्था हो जाती है । अर्थात् क्रमसे होनेवाली मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, काला, नीला आदि पर्यायें क्रमानेकान्त है और चेतना, सुखरूप, रस, आदि सहभावी पर्याय रूप अक्रमानेकान्त है, ये सभी द्रव्यके अंश हैं। अर्पणा और अनर्पणासे पदार्थकी सिद्धि हो जाती है।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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